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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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रखने वाली अंकधात्री कहलाती थी। बौद्ध परम्परा के दिव्यावदान ग्रन्थ में चार प्रकार की धाइयों का वर्णन मिलता है।
पुरुष प्रधान समाज होने पर भी कुछ पुरुष महिलाओं के इतने अधीन होते थे कि दास की भांति उनके हर आदेश का पालन करते थे। पिण्डनियुक्ति में छः प्रकार के स्त्रीप्रधान अधम पुरुषों का उल्लेख मिलता है। पत्नी के कहने पर प्रतिदिन चूल्हा साफ करके उसे जलाने वाला श्वेताङ्गलि, प्रतिदिन प्रातः सरोवर से पानी लाने वाला बकोड्डायक, हर दिन पत्नी से पूछकर कार्य करने वाला किंकर, पत्नी के आदेश के अनुसार स्नान करने वाला स्नायक, आहार के समय गृध्र की भांति स्थाली लेकर पत्नी के पास जाने वाला गृध्रइवरिडी तथा बालक के मल-मूत्र आदि की सफाई करने वाला हदज्ञ कहलाता था।
आज की भांति उस समय भी घरेलू हिंसा होती थी। रुचि के विपरीत कार्य होने पर पुरुष पत्नियों को प्रताड़ित करते थे, जिसे स्त्रियां शांति से सहन करती थीं। शाल्योदन परिवर्तन करने पर दोनों पतियों ने अपनी पत्नियों को प्रताड़ित किया। उनकी पत्नियां वृक्ष की शाखा की भांति कांपने लगीं। मार्जार द्वारा मांस खाने पर अपने पति उग्रतेज के भय से कुत्ते द्वारा वान्त मांस पकाने पर पत्नी रुक्मिणी को उसके पति ने प्रताड़ित किया। कहीं-कहीं पत्नियां भी पति पर गुस्सा करती थीं। स्वामी द्वारा छीनकर साधु को दूध देने पर जब वत्सराज नामक ग्वाला कुछ न्यून दूध लेकर अपने घर पहुंचा तो उसकी पत्नी ने बहुत गुस्सा किया। भिक्षा देने के लिए भी पति-पत्नी में कलह हो जाता था। पत्नी ब्राह्मणों को देने की इच्छा रखती तथा पति श्रमणों को। सामाजिक परम्पराएं एवं मान्यताएं
नियुक्तिकार ने प्रसंगवश अनेक लौकिक एवं वैदिक परम्पराओं का उल्लेख भी किया है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि नियुक्तिकार को उस परम्परा के प्रति विश्वास था लेकिन ग्रंथ को महत्त्वपूर्ण बनाने एवं अपने बाहुश्रुत्य को प्रकट करने के लिए उन्होंने अन्य धर्मों में प्रचलित अनेक लौकिक मान्यताओं एवं अंधवश्वासों का उल्लेख किया है। इनमें कुछ परम्पराएं धर्म से सम्बन्धित हैं तथा कुछ समाज से सम्बन्धित । नियुक्तिकार ने वैदिक मान्यता को प्रकट करते हुए कहा है कि ऋतुमती कन्या के रक्त के जितने बिन्दु गिरते हैं, उतनी ही बार उसकी मां नरक में जाती है। इसके पीछे वैदिक मान्यता यह है कि ऋतुमती होने के पूर्व कन्या का विवाह हो जाना चाहिए अन्यथा उसका असर मां पर पड़ता है।
पुत्र-प्राप्ति को दुर्लभ माना जाता था। उत्तराध्ययन में भी भृगु पुरोहित लौकिक दृष्टि से पुत्रोत्पत्ति
१. मवृ प. १३५, १३६। २. मवृ प. १०१। ३. मवृ प. १३६।
४. पिनि २३१/८। ५.पिनि १९८/२।
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