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पिंडनियुक्ति
२७/२. हत्थसयमेग गंता, दइओ अच्चित्त' बीयए' मीसो।
ततियम्मि उ सच्चित्तो, वत्थी' पुण पोरिसिदिणेसु ॥ ४१ ॥ २८. दइएण वत्थिणा वा, पयोयणं होज्ज वाउणा मुणिणो।
गेलण्णम्मि वि होज्जा, सचित्तमीसे' परिहरेज्जा॥ ४२ ॥ ‘वणसइकाओ तिविधो', सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो। सच्चित्तो पुण दुविधो, निच्छयववहारओ चेव॥ ४३ ॥ सव्वो वणंतकाओ, सच्चित्तो होति निच्छयनयस्स। ववहारस्स य सेसो, मीसो पव्वायलुट्टादी० ॥ ४४ ॥ 'पुप्फाणं पत्ताणं '१९, सरडुफलाणं१२ तहेव हरिताणं। विंटम्मि१३ मिलाणम्मी, नातव्वं जीवविप्पजढं५ ॥ ४५ ।। संथार-पाय-दंडग, खोमिय 'कप्पा य'१६ पीढ-फलगादी।
ओसध-भेसज्जाणि य, एमादि पयोयणं बहुहा ।। ४६ ॥दारं ॥ . ३३. बिय-तिय-चउरो पंचिंदिया य तिप्पभिइ८ जत्थ उ समेति।
सट्ठाणे सट्ठाणे, सो पिंडो तेण कज्जमिणं ॥ ४७ ।।
१. अचित्तो (अ, ब, ओनि ३६१), अच्चित्तु (मु)। क्रमांक के साथ जोड़ दिया हो। हस्तप्रतियों में २. बितियए (बी, ला), बीयओ (क, स)।
भी नियुक्ति और भाष्य की गाथाओं के लिए कोई ३. य (अ, क, बी)।
संकेत नहीं मिलता है। इन्हें निगा के क्रमांक में ४. वत्थि (क)।
नहीं रखने से भी विषय-वस्तु की दृष्टि से २७ ५. २७/१, २-ये दोनों गाथाएं प्रकाशित टीका में नियुक्ति वीं गाथा के बाद २८ वी गाथा संबद्ध लगती है।
के क्रमांक में हैं लेकिन ये भाष्य की गाथाएं होनी ६. व (मु), आनि ३६२। चाहिए। इन गाथाओं के भाष्यगत होने का एक ७. सच्चित्त (स)। कारण यह है कि २७ वी गाथा में जब नियुक्तिकार ८. तिविहो वणसइकाओ (बी), वणस्सइ (अ)। 'अक्कंतादी य अच्चित्तो' का उल्लेख कर चुके हैं ९. हारिओ (क, ब, ला)। तो फिर अगली गाथा में अक्कंत, धंत आदि अचित्त १०. पमाइलु (अ), पव्वाइरुट्टाई (ला), “यरोट्टाई (स, वायु की पुनरुक्ति नहीं करते। इसी प्रकार २८ वीं मु, ओनि ३६३), लोट्टः घरट्टादिचूर्णः (मवृ)। गाथा में उल्लेख है कि मुनि को दृति और वस्ति ११. पत्ताणं पुप्फाणं (अ, बी, बृभा ९८०)। . में स्थित वायु से प्रयोजन होता है। २७/२ में दृति १२. सरड (क), शलादुफलानां-कोमलफलानां (म)। स्थित वायु नदी आदि के जल में काल के आधार १३. वंटम्मि (क)। पर कब सचित्त होती है, इसका उल्लेख यहां १४. मिलायम्मी (बी), मिलाइम्मी (अ)। अप्रासंगिक और व्याख्यात्मक लगता है। संभव है १५. यह गाथा स प्रति में नहीं है। भाष्यकार ने इस द्वारगाथा २७/२ का वर्णन करके १६. कप्पास (बी), कप्पाई (ओनि)। आगे चार गाथाओं में इसकी व्याख्या की है १७. तरुसु (ला, ब, ओनि ३६४)। लेकिन प्रकाशित टीका में संपादक ने इसे निर्यक्ति १८. "इओ (ला, ब), तप्प (क), "भिज्ञ (ओनि ३६५)।
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