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पिंडनियुक्ति
वैवाहिक सम्बन्ध
विवाह अल्पायु में होते थे। यदि कोई कन्या या पुत्र बड़ा हो जाता तो उसके माता-पिता को प्रेरित किया जाता कि तुम्हारा पुत्र युवा हो गया, इसका विवाह क्यों नहीं करते हो? शादी किए बिना कहीं यह स्वैरिणी स्त्री के साथ भाग न जाए। इसी प्रकार पुत्री के लिए कहा जाता कि समय पर विवाह न होने से पुत्री तुम्हारे कुल को कलंकित न कर दे। ऋतुधर्मा होने से पूर्व कन्या की शादी हो जानी चाहिए।
___ आजकल की भांति तत्कालीन समाज में भी पुत्री लेकर पुत्री का विवाह किया जाता था, जैसे देवदत्त की बहिन की शादी धनदत्त से तथा धनदत्त की बहिन का विवाह देवदत्त से हुआ। यद्यपि प्राचीनकाल में विधवा विवाह मान्य नहीं था, स्त्री आजीवन पातिव्रत्य धर्म का पालन करती थी लेकिन अपवाद स्वरूप देवर की पत्नी की मौत होने पर भाई की विधवा पत्नी देवर से विवाह कर लेती थी।
प्रथम पत्नी से गृह-कलह होने पर व्यक्ति दूसरी शादी करने की बात सोचता था। सौत के भय से पत्नी उस कन्या को मूलकर्म के प्रयोग से भिन्नयोनिका बना देती थी, जिससे पति दूसरी शादी न कर सके। धनदत्त सार्थवाह की पत्नी चन्द्रमुखा ने सेठ की पुत्री को औषध आदि खिलाकर भिन्नयोनिका बना दिया। भिन्नयोनिका की बात ज्ञात होने पर पति ने उसके साथ विवाह नहीं किया। सौतिया डाह के कारण सौत दूसरी रानी के पुत्र को गर्भावस्था में ही उसका परिशाटन करवा देती थी, जिससे उसका पुत्र युवराज न बन पाए।
गर्भ के तीसरे महीने में गर्भवती स्त्री के तीव्रतम इच्छा उत्पन्न होती है, जिसे दोहद कहा जाता है। गर्भकाल में दोहद एवं उसकी संपूर्ति का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। दोहद की पूर्ति न होने पर गर्भवती एवं गर्भस्थ शिशु-दोनों पर प्रभाव पड़ता है। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह के अनुसार दोहद-पूर्ति के बिना गर्भपात अथवा मरण भी हो सकता है। दोहद की पूर्ति येन केन प्रकारेण की जाती थी। जितशत्रु राजा ने सुदर्शना रानी की दोहदपूर्ति हेतु राजपुरुषों को स्वर्णपृष्ठ वाले मृग लाने का आदेश दिया क्योंकि रानी के मन में सुनहरी पीठ वाले मृगों का मांस भक्षण करने का दोहद उत्पन्न हो गया था।
संतान उत्पन्न होने के बाद धनाढ्य लोग पांच प्रकार की धाय माताओं द्वारा बालक का पालन पोषण करवाते थे। दूध पिलाने वाली अंकधात्री कहलाती थी। स्नान कराने वाली मज्जनधात्री, बालक को विभूषित और अलंकृत करने वाली मण्डनधात्री, क्रीड़ा कराने वाली क्रीडापन धात्री तथा बच्चे को गोद में
१. पिनि २३१/८, ९। २. मवृ प. १००। ३. मवृ प. ६४। ४. मवृ प. १४४, १४५ । ५. पिनि २३१/१०,११।
६. दशअचू पृ. १११; डोहलस्साविगमे मरणं गब्भपतणं वा
होज्जा। ७. पिनि ५३/१-५४, मवृ प. ३०। ८. पिनि १९७, आचूला १५/१४ ।
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