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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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२५.५ सेमी. लम्बी तथा १३.३ सेमी. चौड़ी है। यह साफ-सुथरी एवं पढ़ने में स्पष्ट है। इसके १५ पत्र हैं। प्रति के अंत में "महल्लियापिंडनिज्जुत्ती सम्मत्ता श्रीरस्तु शुभं भवतु" लिखा हुआ है तथा अंतिम पृष्ठ खाली है। (स) यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर पाटण गुजरात से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या ३५५४ तथा पत्र संख्या २२ है। जीर्ण होते हुए भी इसके अक्षर स्पष्ट एवं साफ-सुथरे हैं। यह प्रति चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की होनी चाहिए। इसके अंत में "पिण्डनिज्जुत्ती सम्मत्ता॥ छ॥" का उल्लेख है। (मु) मलयगिरि की टीका में मुद्रित पाठ के पाठान्तर 'मु' के संकेत से निर्दिष्ट हैं। (टीपा) टीकाकार ने अपनी टीका में जिन पाठान्तरों का उल्लेख किया है, उसे टीपा से निर्दिष्ट किया है। पिण्डनियुक्ति के सम्पादन का इतिहास
नियुक्ति पंचक और आवश्यक नियुक्ति का पाठ-सम्पादन परिसम्पन्न होने के पश्चात् आवश्यक नियुक्ति के द्वितीय खंड का सम्पादन करना आवश्यक था लेकिन बीच में चार साल लाडनूं से बाहर यात्रा करने एवं एक साल समणश्रेणी का इतिहास लिखने की व्यस्तता में आगम-सम्पादन का कार्य लगभग छूट सा गया। पुनः जब पूज्यवरों ने मुझे इस कार्य में नियुक्त किया तो कई दिनों तक इस कार्य में मन एकाग्र नहीं हो सका। अनेक बार आवश्यक नियुक्ति के सम्पादन का कार्य हाथ में लिया लेकिन जटिलता के कारण वह हर बार छूटता गया इसलिए आवश्यक नियुक्ति से पूर्व पिण्डनियुक्ति का कार्य प्रारम्भ किया। यद्यपि इस ग्रंथ का हस्तप्रतियों से सम्पादन का कार्य सन् १९८८ में ही पूरा कर दिया था लेकिन प्रकाशन के समय पाटण एवं अहमदाबाद से प्राप्त प्रतियों से इसके पाठ का मिलान किया तो उतना ही श्रम हो गया। गंगाशहर मर्यादा-महोत्सव के बाद इस दृढ़ संकल्प के साथ कार्य प्रारम्भ किया था कि अग्रिम आसींद मर्यादामहोत्सव तक यह कार्य सम्पन्न करना है। दीपावली से लेकर मर्यादा-महोत्सव तक कड़कड़ाती सर्दी में रात्रि में बारह-साढ़े बारह बजे तक कार्य किया, लेकिन भूमिका बड़ी होने के कारण निर्धारित काल-सीमा तक यह कार्य परिपूर्ण नहीं हो सका। आज इसकी परिसम्पन्नता पर अत्यन्त आत्मतोष का अनुभव हो रहा है। इस संदर्भ में मेरा दृढ़तम विश्वास है कि ऐसे गुरुतर कार्य गुरु की कृपा, बुजुर्गों का आशीर्वाद एवं संघ की शक्ति से ही संभव होते हैं, व्यक्ति तो केवल निमित्त मात्र होता है।
यद्यपि इस कार्य में अनेक अवरोध और जटिलताएं आईं लेकिन गुरु-कृपा से समाहित होती गईं। आज तक जो भी आगम ग्रंथ प्रकाशित हुए, उनमें आगम मनीषी मुनि श्री दुलहराजजी का पूर्ण सहयोग
और मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा, इस बार भले ही उनकी प्रत्यक्ष सन्निधि नहीं मिली लेकिन उन्होंने पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी, फलतः यह कार्य सुगम हो सका। पिण्डनियुक्ति के अनुवाद का उनकी द्रुतगामिनी लेखनी से सम्पन्न हुआ है। मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करके उनके ऋण को कम नहीं करना चाहती क्योंकि उन्होंने केवल मार्गदर्शन ही नहीं दिया, अनुवाद करना और लक्ष्य प्रतिबद्ध होकर कार्य में एकाग्र रहना भी सिखाया है। इस ग्रंथ पर लिखे गए अधिकांश टिप्पण एवं विस्तृत भूमिका उसी की फलश्रुति है।
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