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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
हस्तप्रतियों के आधार पर गाथाओं के आगे 'दारं' का उल्लेख किया गया है लेकिन अनेक स्थलों पर
विषय की दृष्टि से उनको द्वारगाथा नहीं माना जा सकता।
लिपिकार की भूल से जहां पाठभेद हुआ है, उन पाठान्तरों का प्रायः उल्लेख नहीं किया है लेकिन जहां उस शब्द से अन्य अर्थ निकलने की संभावना थी, उन पाठान्तरों का उल्लेख किया गया है।
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• पश्चिमी विद्वान् ल्यूमेन ने दशवैकालिक एवं एल्फसडोर्फ ने उत्तराध्ययन का छंद की दृष्टि से अनेक स्थलों पर पाठ - संशोधन एवं पाठ-विमर्श किया है। उन्होंने छंद तकनीक को उपकरण के रूप में काम में लिया है। जेकोबी ने छंद के आधार पर गाथा की प्राचीनता एवं अर्वाचीनता का निर्धारण किया है। उनके अनुसार आर्या छंद में निबद्ध साहित्य बाद का तथा वेद छंदों में प्रयुक्त गाथाएं प्राचीन हैं । पिण्डनिर्युक्ति में भी पाठ - संपादन में छंद दृष्टि का पूरा ध्यान रखा गया है। अनेक स्थलों पर छंद के आधार पर ही पाठ की अशुद्धियां पकड़ी गई हैं। पाठ- संपादन में हमने आर्या की उपजातियों का पृथक् निर्देश नहीं किया है लेकिन आर्या के अतिरिक्त दूसरे छंद में गाथाएं निबद्ध हैं तो उनका टिप्पण में उल्लेख कर दिया है। पिण्डनिर्युक्ति में कहीं-कहीं एक ही गाथा में अनुष्टुप् एवं आर्या- दोनों छंदों का प्रयोग हुआ है, जैसे- तीन चरण आर्या के तथा एक अनुष्टुप् का अथवा तीन अनुष्टुप् और एक आर्या का। जहां भी छंदों का मिश्रण हुआ है, पादटिप्पण में उसका भी उल्लेख कर दिया गया है।
अनेक स्थानों पर छंद की दृष्टि से विभक्ति रहित प्रयोग, अलाक्षणिक मकार तथा बहुवचन के स्थान पर एकवचन अथवा एकवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग हुआ है, वहां टीकाकार ने इसका निर्देश या विमर्श प्रस्तुत किया है तो उसका पादटिप्पण में उल्लेख किया गया है, जैसे
अत्रैकारद्वयस्य छंदोऽर्थत्वादादिशब्दस्य व्यत्ययान्मकारस्य चालक्षणिकत्वादेवं निर्देशो द्रष्टव्यः ।
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सूत्रे विभक्तिलोप आर्षत्वात् ।
इह सर्वत्र सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतलक्षणवशात् ।
सेहमाईण इत्यत्र मकारोऽलाक्षणिकः ।
नेमशब्दो देश्यः कार्याभिधाने रूढः । सीदति धातूनामनेकार्थत्वात् फलति । प्राकृतशैल्या स्त्रीलिंगनिर्देशः ।
शोधकर्ताओं की सुविधा के लिए संपादित नियुक्ति के क्रमांक प्रारम्भ में तथा टीका के क्रमांक गाथा के अन्त में दे दिए गए हैं। इससे किसी भी गाथा की टीका देखने में सुविधा रहेगी। यद्यपि हमको टीका में प्रकाशित भाष्यगाथाओं को भी साथ 'देना था। टीका में प्रकाशित भाष्य गाथाओं को अलग देने का इतना महत्त्व नहीं था लेकिन टीका का सम्पादन नहीं हुआ और गाथाओं की सेटिंग हो चुकी थी अतः भाष्य गाथाओं को निर्युक्तिगाथाओं के अन्त में दिया है।
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