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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१५३.
• मगरमच्छ, कच्छप आदि के द्वारा पकड़ा जाना। • कीचड़ में पैर धंसना आदि।
___धूलियुक्त कच्चे मार्ग होने से स्थलमार्ग में भी कांटे, सर्प, चोर तथा जंगली पशुओं का भय रहता था। सार्थ में यदि कोई साधु बिछुड़ जाता तो महिष आदि का सींग बजाकर उसका मिलाप किया जाता था। साधु समुदाय भी सार्थ के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी तय करते थे। कभी-कभी सार्थ के साथ चोर भी होते थे, जो सार्थिक से बलात् आहार छीनकर साधु को दे देते थे। अपराध एवं दंड
____ हर युग में अपराध और दंड का स्वरूप बदलता रहता है। हाकार, माकार और धिक्कार नीति से प्रारम्भ होने वाली दंड-व्यवस्था प्राणदंड तक पहुंच गई। नियुक्तिकालीन समाज में राजाज्ञा भंग होने पर प्राणदंड तक का दंड दिया जाता था। सूर्योदय उद्यान में जाने वाले आज्ञाभंग के कारण प्राणदंड के भागी हुए, जबकि चंद्रोदय उद्यान में जाने वाले तृणहारक अंत:पुर को देखकर भी दंड मुक्त हो गए क्योंकि उन्होंने राजा की आज्ञा का भंग नहीं किया था।
पाप करने वाले से भी उसका समर्थन, सहयोग, प्रशंसा और अनुमोदन करने वाला अधिक दोषी होता है। अपराधी की प्रशंसा करने वाले को भी राजा प्राणदंड तक की सजा दे देते थे क्योंकि इससे अपराध को सहयोग और प्रोत्साहन मिलता है। चोर आदि के साथ रहने वालों को भी राजा दंडित करता था। श्रीनिलय नगर के राजा गुणचन्द्र ने अंत:करण की रानियों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने वाले व्यक्ति को चौराहे पर तिरस्कार पूर्ण प्राणदंड दिया तथा गुप्तचरों के माध्यम से यह ज्ञात किया कि नगर में कौन उसकी प्रशंसा कर रहा है। राजा ने प्रशंसा करने वाले को भी कड़ा दंड दिया।
.. यहां संक्षिप्त में कुछ विषयों से सम्बन्धित तत्कालीन सांस्कृतिक स्थिति का चित्रण प्रस्तुत किया है। इस विषय में और भी महत्त्वपूर्ण सामग्री इस ग्रंथ एवं इसके व्याख्या-साहित्य में विकीर्ण रूप से बिखरी पड़ी है, जो स्वतंत्र रूप से विद्वानों द्वारा शोध का विषय है। पाठ-संपादन की प्रक्रिया
शोध कार्यों में पाठ-संपादन का कार्य अत्यन्त जटिल, नीरस और श्रमसाध्य होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है। पाठ-निर्धारण का अर्थ मात्र इतना ही नहीं कि प्राचीन प्रतियों के विभिन्न पाठों में एक पाठ
१.पिनि १५४।
४. पिनि ९१/१-४, मवृ प.७६ । २. मवृ प. २०, २१, शृङ्गस्य महिष्यादिसत्कस्य, तद्धि मार्गे ५. मवृ प. ४८, ४९।।
गच्छात्परिभ्रष्टानां साधूनां मीलनाय वाद्यते। ६. पिनि ६९/३, मवृ प. ४९ । ३. पिनि १७७/१, २, मवृ प. ११२, ११३ ।
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