________________
१५६
पिंड निर्युक्त
कहीं-कहीं भगवती टीका के संदर्भ हेतु भगवती भाष्य के पीछे दी गई टीका की ही पृष्ठ संख्या दे दी गई
•
है।
• शब्द - सूची में संस्कृतनिष्ठ शब्द, जो प्राकृत में बिना परिवर्तनं के प्रयुक्त होते हैं, उनका समावेश नहीं किया है, जैसे- कोविद, खर, गल, तुरंग, निचय, समवाय, मधु आदि ।
हस्तप्रतियों से पाठ-संपादन का कार्य अत्यन्त दुरूह है । नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि जैसे सक्षम आचार्य ने इस संदर्भ में आने वाली विभिन्नताओं और कठिनाइयों का वर्णन किया है फिर भी उन्होंने श्रुत की उपासना का महान् कार्य किया। उन्हीं को आदर्श मानकर पूज्यवरों द्वारा प्रेरित होकर यह कार्य प्रारम्भ किया और यत्किंचित श्रुत की उपासना की ।
हस्तप्रति - परिचय
पिण्डनिर्युक्ति के सम्पादन में निम्न प्रतियों एवं स्रोतों का उपयोग किया गया है
(अ) यह प्रति देला का उपाश्रय अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या ११४५८ है । यह ३० सेमी. लम्बी तथा ११ सेमी. चौड़ी है। इसकी पत्र संख्या १४ तथा अंतिम पृष्ठ खाली है। प्रति स्पष्ट एवं साफ-सुथरी है। इसके अंत में " पिण्डनिज्जुत्ती सम्मत्ता, शुभं भवतु सं. १४२२ वर्षे फाल्गुन सुदि १२ बुधवार दिने लिखिता " ऐसा लिखा है।
(क) यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर पाटण गुजरात से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या ३६७७ तथा पत्र संख्या २४ है। इसके पत्र अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हैं लेकिन प्रति के अक्षर स्पष्ट एवं साफ-सुथरे हैं। यह प्रति चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी की होनी चाहिए। इसके अंत में " पिंडनिज्जुत्ती सम्मत्ता ग्रंथाग्र गाथा ७१६ ॥ छ ॥ श्री ॥ श्री ॥ श्री ॥ " का उल्लेख है ।
(ब) यह प्रति जसुभाई लाईब्रेरी अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक सं. ६२३ है । यह २५ सेमी. लम्बी एवं ११ सेमी. चौड़ी है। इसकी पत्र सं. २६ है । यह मोटे अक्षरों में लिखी गई है। इसके अंत में " पिण्डनिज्जुत्ती सम्मत्ता सं. १५५२, वर्षे भाद्रवा बदि १० रावो श्री अणहिल्लपुरपत्तने श्री कोरंग ग्रं. ८०० श्री ॥ " ऐसा उल्लेख है ।
(बी) यह प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान बीकानेर से प्राप्त है। इसकी परिग्रहणांक सं. १३१९४ है । यह २८ सेमी. लम्बी १३ सेमी. चौड़ी है। यह प्रति किनारे से खंडित है अतः अनेक शब्द लुप्त हो गए हैं। प्रति के बीच तथा किनारे पर बड़ा लाल बिन्दु है । इसकी पत्र संख्या २२ है । अंतिम पृष्ठ खाली है। प्रति के अंत में " इति पिण्डनिज्जुत्ती सम्मत्ता शुभं भवतु, ग्रंथाग्र १००० परिपूर्णा श्री पूर्णिमापक्षे श्री विमलेन लिपी कृतवान् श्रीरस्तु संवत् १६५७ वर्षे विशाखसुदि पंचमी दिने ॥" ऐसा उल्लेख है।
(ला) यह प्रति लालभाई दलपत विद्या मंदिर अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या १९५४ है । यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org