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पिंडनियुक्ति
कण भी स्पृष्ट हो जाए तो वह पदार्थ अगाह्य हो जाता है, वैसे ही आधाकर्म का अंशमात्र भी पूरे भोजन को अशुद्ध बना देता है। आचार्य हरिभद्र ने संभाव्यमान आधाकर्म के अवयव से मिश्र आहार को पूतिकर्म दोष माना है। केवल आधाकर्म से स्पृष्ट होने पर ही पूति नहीं होती, पूति से स्पृष्ट आहार भी पूतिदोष युक्त होता है।
मूलाचार में पूति के पांच भेद निर्दिष्ट हैं-१. चुल्ली २. उक्खा (ऊखल) ३. दर्वी ४. भाजन ५. गंध। अनगारधर्मामृत में पूति दोष के दो भेद प्राप्त होते हैं-अप्रासुकमिश्र तथा कल्पित। अप्रासुक द्रव्य से मिला हुआ प्रासुक द्रव्य अप्रासुकमिश्र पूतिकर्म कहलाता है तथा जब तक साधु को यह भोजन न दिया जाए , तब तक कोई उपयोग न करे, यह कल्पित नामक दूसरा पूतिदोष है। अप्रासुक और आधाकर्म में बहुत अन्तर है। अप्रासुक का अर्थ है अचित्त तथा आधाकर्म का अर्थ है साधु के निमित्त अचित्त किया हुआ आहार। पूतिदोष के भेद-प्रभेदों को निम्न चार्ट से प्रस्तुत किया जा सकता है
पूति
द्रव्य
सूक्ष्म
उपकरणविषयक भक्तपानविषयक इंधन धूम वाष्प अग्निकण निशीथ भाष्य के अनुसार बादरपूति के भेद-प्रभेद इस प्रकार हैं
बादरपूति
आहार
उपधि
वसति
उपकरणपूति
आहारपूति
वस्त्र
पात्र
मूलगुण
उत्तरगुण
१. दशहाटी प. १७४ ; पूतिकर्म-संभाव्यमानाधाकर्मावयव
संमिश्रलक्षणम्। २. निचूभा २, पृ. ६५; न केवलं आहाकम्मेण पुढे पूतितं, __ पूतिएण वि पुढे पूइमित्यर्थः । ३. अनध ५/९, टी पृ. ३८१ । ४. निभा ८०६, ८०७। ५. निभा ८११ चू पृ. ६५, निशीथ भाष्य में मूलगुण और
उत्तरगुण के सात-सात भेद किए गए हैं। गृह-निर्माण में दो मूल वेली, दो धारणा और एक पृष्ठवंश-इन सात वस्तुओं का प्रयोग मूलगुण से सम्बन्धित होता है तथा बांस, कडण-ओकंपण, छत डालना, लिपाई करना, द्वार लगाना और भूमिकर्म करना-ये सात चीजें उत्तरगुण से सम्बन्धित हैं। इनमें यदि छह प्रासुक है और एक आधाकर्मिक है तो भी पूतिदोष होता है।
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