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पिंडनिर्युक्ति
जिस दिन गृहस्थ आधाकर्म भोजन निष्पन्न करता है, उस दिन वह आहार आधाकर्म दोष से दुष्ट होता है। शेष तीन दिन तक उस घर में पूति रहती है। तीन दिन तक मुनि वहां से भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता। यदि पात्र पूतिदोष से युक्त है तो कल्पत्रय के बाद उसमें डाला गया या पकाया गया आहार ग्राह्य हो सकता है।
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पूतिकर्म आहार ग्रहण की हानियों का चित्रण करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है कि पूर्तिकर्म आहार को यदि भिक्षु हजार घरों के अंतरित हो जाने पर भी लेता है तो वह प्रव्रजित होकर भी गृहस्थ जैसा आचरण करता है। जिस प्रकार समुद्र के ज्वार के साथ किनारे पर आने वाले मत्स्य यदि बालू में फंस जाते हैं तो मांसार्थी ढंक और कंक आदि पक्षियों द्वारा उनका मांस नोचे जाने पर वे अत्यन्त दुःख का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार वर्तमान सुख की एषणा में रत पूतिकर्म युक्त आहार लेने वाले साधु उन मत्स्यों की भांति अनंत दुःखों को प्राप्त करते हैं।
निशीथ चूर्णिकार के अनुसार यदि साधु पूति दोष युक्त आहार, उपधि या वसति ग्रहण करता है तो संयम - विराधना होती है। अशुद्ध ग्रहण से देवता प्रमत्त साधु को छल सकते हैं तथा आत्म-विराधना के रूप में अजीर्ण या किसी अन्य प्रकार का रोग भी उत्पन्न कर सकते हैं।
४. मिश्रजात
आहार गृहस्थ के साथ पाखंडी, अन्यदर्शनी भिक्षाचर एवं साधु के निमित्त से पकाया जाता है,
वह मिश्रजात दोष युक्त होता है। वह तीन प्रकार का होता है—
• यावदर्थिकमिश्र - जो आहार गृहस्थ तथा सभी भिक्षाचरों के निमित्त बनाया जाता है, वह यावदर्थिकमिश्र
कहलाता है।
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• पाखण्डिमिश्र - जो आहार गृहस्थ के साथ अन्यदर्शनी साधु के निमित्त पकाया जाता है, वह पाखण्डिमिश्र कहलाता है।
• साधुमिश्र - परिवार एवं निर्ग्रन्थ के निमित्त बनाया गया आहार साधुमिश्र कहलाता है।
निर्युक्तिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि जैसे सहस्रवेधक विष खाने से किसी की मृत्यु हो जाए तो पारम्पर मरण में हजारवें व्यक्ति का मांस खाने पर भी व्यक्ति की उस विष से मृत्यु हो जाती है, वैसे ही तीनों प्रकार का मिश्रजात आहार सहस्रान्तरित - हजारवें व्यक्ति के पास जाने पर भी साधु के लिए कल्पनीय नहीं होता, वह साधु के चारित्र का विनाश कर देता है ।"'
१. पिनि ११८, मवृ प. ८७ ।
२. सू १/१/६०-६३।
३. निचूभा. २, पृ. ६६ ।
४. मूला ४२९ ।
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५. पिनि १२१ ।
६. पिनि १२२ ।
७. पिनि १२२ । ८. पिनि १२३, १२४ ।
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