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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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दुर्भिक्षभक्त
भयंकर दुष्काल होने पर राजा अथवा धनाढ्य व्यक्ति साधुओं के लिए जो भक्तपान तैयार करते थे, वह दुर्भिक्षभक्त कहलाता था। इस रूप में दिया जाने वाला आहार मुनि के लिए अग्राह्य होता है। दुर्भिक्ष भक्त को ग्रहण करने वाला विराधक होता है। बार्दलिकाभक्त
वर्षा होने पर या घनघोर बादल छाए रहने पर राजा अथवा गृहस्थ यदि मुनि के लिए विशेष रूप से आहार-दान की व्यवस्था करता है, वह बार्दलिकाभक्त कहलाता है। बार्दलिकाभक्त ग्रहण करने वाला मुनि प्रायश्चित्त का भागी होता है। निशीथ चूर्णि के अनुसार सात दिन तक लगातार वर्षा होने पर राजा साधुओं के निमित्त जो भोजन बनवाता है, वह बार्दलिकाभक्त कहलाता है। कान्तारभक्त की भांति बालिकाभक्त को ग्रहण करने वाला विराधक होता है । कान्तारभक्त
प्राचीनकाल में यातायात के साधन विकसित नहीं थे। सामान्यतः लोग सार्थ के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी तय करते थे। चोर आदि के भय से मुनि भी सार्थ के साथ पदयात्रा करते थे। अटवी में साधु पर दया करके उनके लिए जो भोजन बनाया जाता था, उसे कान्तारभक्त कहा जाता था। निशीथ में अरण्यभक्त या कान्तारभक्त लेने वाले को प्रायश्चित्त का भागी बताया है। टीकाकार अभयदेवसूरि ने कांतारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, ग्लानभक्त, बालिकाभक्त, प्राघूर्णकभक्त आदि को आधाकर्म के अन्तर्गत माना है। प्राघूर्णकभक्त
अतिथि के निमित्त बना हुआ भोजन प्राघूर्णकभक्त कहलाता है। अग्रपिण्ड
__ गृहस्थ के घर में निष्पन्न अग्रपिण्ड भिक्षा साधु के लिए निषिद्ध है। निशीथ में अग्रपिण्ड ग्रहण करने वाले साधु को प्रायश्चित्त का भागी बताया है। प्राय: घरों में अग्रपिण्ड गाय, कुत्ता या भिखारी को दिया जाता है, यदि साधु उसे ग्रहण करता है तो उसको अंतराय का दोष लगता है। अग्रपिण्ड लेने से साधु को त्वरा रहती है अत: ईर्यासमिति का ध्यान भी नहीं रहता।
१. निचू २ पृ. ४५५ ; कंताराते अडविणिग्गयाणं भुक्खत्ताणं ५. भग ५/१३९-४६। । जं दुब्भिक्खे राया देति, तं दुब्भिक्खभत्तं ।
६. भगभा २ पृ. ५२१ ; कंतारभत्तं ति कान्तारम्-अरण्यं तत्र २. भग ५/१३९-४६।
भिक्षुकाणां निर्वाहार्थं यदविहितं भक्तं तत्कान्तारभक्तम्। ३. नि ९/६।
७. नि ९/६, निभा ५४१५ । ४. निचू २ पृ. ४५५ ; सत्ताहबद्दले पडते भत्तं करेति राया ८. स्थाटी . ३११; कांतारभक्तादय आधाकर्मादि भेदा एव।
अपुव्वाणं वा अविधीण भत्तं करेति राया।
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