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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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संन्यस्त परम्परा एवं साम्प्रदायिकता
नियुक्तिकार ने तत्कालीन अनेक संन्यस्त परम्पराओं का उल्लेख किया है। भिक्षाचर्या के प्रसंग में पांच प्रकार के श्रमण एवं पांच वनीपकों का उल्लेख है। श्रमणों के पांच प्रकार हैं-१. निर्ग्रन्थ २. शाक्य -रक्तपटधारी बौद्ध संन्यासी ३. तापस ४. गैरुक-गेरुए वस्त्र धारण करने वाले परिव्राजक ५. आजीवकगोशालक परम्परा के साधु।
याचना के द्वारा आजीविका चलाने वाले वनीपक कहलाते थे, उनके पांच भेद वर्णित हैं--श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान। वनीपक दोष के अन्तर्गत नियुक्तिकार ने इन सबकी विशेषताओं का उल्लेख किया है। एक सम्पदाय के संन्यासी मात्सर्य के कारण दूसरे सम्प्रदाय के साधु की निंदा करते थे। साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण किसी उत्कृष्ट साहित्यिक रचना को जला दिया जाता था, जैसेआषाढ़भूति द्वारा रचित राष्ट्रपाल नामक नाटक को इसलिए जला दिया गया कि उसका मंचन होने से ५०० क्षत्रिय प्रव्रजित हो गए थे। विद्या और मंत्र का प्रयोग
नियुक्तिकालीन समाज में विशिष्ट विद्या एवं मंत्र को सिद्ध करके उसके प्रयोग की परम्परा चलती थी। महावीर ने साधु के लिए विद्या, मंत्र, निमित्त आदि का प्रयोग निषिद्ध किया था लेकिन छद्मस्थता वश कहीं-कहीं साधु आहार-प्राप्ति के लिए इनका प्रयोग कर लेते थे। आचार्य पादलिप्त ने संघ-प्रभावना के लिए मंत्रप्रयोग से मुरुंड राजा की शीर्ष-वेदना को दूर किया। विद्या का प्रयोग करके साधु कंजूस व्यक्ति से भी वस्त्र, घी, गुड़ आदि पदार्थ पर्याप्त मात्रा में ले लेते थे, फिर विद्या प्रतिसंहृत होने पर उस व्यक्ति को ज्ञात होता था कि मेरे वस्त्र आदि किसने चुराए? विलाप करने पर उसके पारिवारिक लोग उसे समझाते कि तुमने स्वयं उन वस्तुओं का दान किया है।
कुछ तापस योगसिद्धि करके पाद-लेप के द्वारा पैदल चलकर नदी पार कर लेते थे। विद्या विशेष के प्रयोग से आचार्य समित ने कृष्णा नदी को पार करने का निवेदन किया तो नदी के दोनों किनारे आपस में मिल गए। उसकी चौड़ाई उनके पैरों से लांघने जितनी हो गई। पार करने पर नदी पुनः चौड़ी हो गई।
कभी-कभी साधु वैक्रिय लब्धि से रूप-परिवर्तन करके एक ही घर से बार-बार भिक्षा ग्रहण कर लेते थे। आषाढ़भूति मुनि ने नट के यहां से मोदक-प्राप्ति के लिए काने, कुब्ज आदि का रूप बनाकर तीन
१. मवृ प. १०८। २.पिनि २२७। ३. पिनि २२७/१,२।
४. पिनि २३१/१, २, मवृ प. १४४। ५.पिनि २३१/४, मवृ प. १४४।
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