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पिंडनियुक्ति
सांस्कृतिक सामग्री
कोई भी साहित्य उस समय की सांस्कृतिक, धार्मिक एवं सामाजिक स्थितियों को किसी न किसी रूप में प्रकट कर ही देता है क्योंकि साहित्यकार समाज में श्वास लेता है। आचार प्रधान होते हुए भी नियुक्ति-साहित्य में प्रसंगवश तत्कालीन सांस्कृतिक, सामाजिक एवं पारिवारिक परिस्थितियों का चित्रण हुआ है। यद्यपि पूर्ण रूप से सांस्कृतिक वर्णन प्रस्तुत करना यहां अभीष्ट नहीं है फिर भी कुछ विषयों पर यहां चंचुपात किया जा रहा है। पिण्डनियुक्ति में सांस्कृतिक परिवेश-इस विषय पर स्वतंत्र शोध भी किया जा सकता है। देवी-देवता
भारत धर्मप्रधान भूमि है अत: यहां अनेक देवी-देवताओं का अस्तित्व एवं उनकी पूजा-विधान का प्रचलन है। प्राचीनकाल में देवताओं के आधार पर अष्टदिवसीय उत्सव भी मनाए जाते थे, जैसेइन्द्रमह, रुद्रमह, वरुणमह आदि ।
युद्ध के लिए प्रवेश करने के समय सेनापति और सैनिक चामुण्डा देवी को प्रणाम करते थे। शीतलक अशिव आदि उपद्रव की शांति के लिए माणिभद्र यक्ष की आराधना एवं अष्टमी-चतुर्दशी को सब मिलकर यक्षायतन में उद्यापन किया करते थे। माणिभद्र देव का उल्लेख महाभारत में भी आता है। डॉ. जगदीशचन्द्र जैन के अनुसार यक्षों में सबसे प्राचीन मूर्ति माणिभद्र यक्ष की मिलती है।'
कुत्तों के विषय में यह मान्यता प्रचलित थी कि ये कैलाशपर्वत (मेरु) के देव विशेष हैं, जो पृथ्वी पर श्वान रूप में विचरण करते हैं। ये पूजा करने वाले का हित तथा तिरस्कार करने वाले का अहित करते हैं। संयमी साधु की उपासना में देवता रहते थे। वे अविनीत शिष्य को दंडित भी कर देते थे, जैसे संगम आचार्य की उपासना में रहने वाले देव ने दत्त शिष्य को प्रतिबोध देने के लिए भयंकर वायु के साथ वर्षा की विकुर्वणा की।
कुछ आचार्य इतने शक्ति सम्पन्न होते थे कि चिमटी बजाते ही व्यन्तर देव पलायन कर जाते थे। संगम आचार्य के चिमटी बजाते ही छह महीने से व्यन्तर प्रभावित बालक ने रोना बंद कर दिया और व्यन्तर देवी वहां से पलायन कर गई।
१. मवृ प. १३०॥ २. महा २/१०/१०। ३. जैन आगम-साहित्य में भारतीय समाज, पृ. ४३८ । ४. (क) पिनि २१०/५।
(ख) निभा ४४२७, चू पृ. ४१६ : कैलासपर्वतो मेरुः ,
तत्थ जाणि देवभवणाणि तण्णिवासिणो जे देवा एते इमं
मच्चलोगं आगच्छति, जक्खरूवेण श्वानरूपेणेत्यर्थः। ५. मवृ प. १२६। ६. मवृ प. १२५।
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