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पिंडनियुक्ति
टीका में स्पष्ट उल्लेख है कि छठे रात्रिभोजन व्रत के भग्न होने पर महाव्रतों को पीड़ा होती है। .
निशीथ चूर्णि में एक प्रश्न उठाया गया है कि आधाकर्म और रात्रिभोजन-दोनों का प्रायश्चित्त चार गुरु (उपवास) है फिर दोनों में से कौन-सा विकल्प कम दोष वाला है, इसका उत्तर देते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि आधाकर्म उत्तरगुणों का उपघात करने वाला है लेकिन रात्रि-भोजन मूलगुणों का उपघाती है अतः उसका परिहार करना चाहिए। चूर्णिकार ने इस प्रसंग में और भी अनेक विकल्पों को प्रस्तुत किया
है।
निशीथ सूत्र में रात्रि-भोजन के चार विकल्प प्रस्तुत किए गए हैं• दिन में लाया हुआ, दिन में भोग। • दिन में लाया हुआ, रात्रि में भोग। • रात्रि में लाया हुआ, दिन में भोग।
• रात्रि में लाया हुआ, रात्रि में भोग। __ प्रथम भंग को स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि कोई उपवास कर्ता मुनि को ज्ञात हुआ कि ज्ञाति लोगों के यहां संखडि भोज है। वह बिना पात्र लिए वहां पहुंचा तो ज्ञाति लोगों ने कहा-'आप पात्र क्यों नहीं लाए?' उसने कहा-'आज मेरे उपवास है।' तब उन्होंने मुनि के लिए संखडि का कुछ भाग स्थापित कर दिया कि कल पारणे में हम मुनि को देंगे। दूसरे दिन पारणे में उसको ग्रहण करने वाले मुनि पर रात्रिभोजन का प्रथम भंग घटित होता है। बाकी के तीन भंगों का तथा रात्रिभोजन से होने वाली हानियों का भाष्यकार एवं टीकाकार ने विस्तार से वर्णन किया है।
__ भाष्यकार के अनुसार यदि मुनि सूर्य उदित नहीं हुआ है, इस शंका से भिक्षा ग्रहण करता है तो सूर्योदय होने पर भी वह चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त का भागी होता है। सूर्योदय न होने पर भी यदि सूर्योदय के विश्वास से निःशंकित मन में भिक्षा ग्रहण करता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता। दशवैकालिक सूत्र में रात्रि-भोजन से होने वाले हिंसा जनित दोषों का उल्लेख है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार रात्रि में भिक्षार्थ जाने से भगवान् की सर्वज्ञता के प्रति आशंका उत्पन्न होती है, मिथ्यात्व की वृद्धि होती है तथा आत्म-विराधना और संयम- विराधना होती है। रात्रि के अंधकार में न दीखने से मुनि स्खलित होकर गिर सकता है, पैर में कांटे लग सकते हैं, गढ़े में गिर सकता है, सर्प काट सकता है, कुत्ते
१. बृभाटी पृ.८०१।
४. देखें बृभा २८५०-६४, टी पृ. ८०६-८१२ । २. निचू भा. १ पृ. १५०; कम्म सेयं न भोयणं रातो मूलगुणोप- ५. बृभा ५८०८, ५८०९, विस्तार हेतु देखें बृभा ५७८६घातित्वात्।
५८२८। ३. (क) नि ११/७५-७८ ।
६. दश ६/२३-२५। (ख) निभा ४१२ चू पृ. १४०।
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