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पिंडनियुक्ति
ग्लानभक्त
___ भगवतीसूत्र में ग्लानभक्त को आधाकर्म आहार की भांति सावध माना है। ग्लानभक्त का अर्थ करते हुए टीकाकार अभयदेवसूरि कहते हैं कि रोगी के आरोग्य हेतु दिया जाने वाला आहार ग्लानभक्त कहलाता है। ग्लानभक्त का दूसरा अर्थ है-आरोग्यशाला में दिया जाने वाला भोजन। निवेदनापिंड
कारणवश या अकारणवश पूर्णभद्र या माणिभद्र आदि देवताओं के लिए जो आहार अर्पित किया जाता है, वह निवेदनापिंड कहलाता है। निशीथ के अनुसार निवेदना पिंड का भोग करने वाला साधु प्रायश्चित्त का भागी होता है। निवेदनापिंड दो प्रकार का होता है-१. साधु निश्राकृत २. अनिश्राकृत। साधु के लिए कृत निवेदनापिंड ग्रहण करने वाले साधु को चारगुरु (उपवास) तथा अनिश्राकृत को ग्रहण करने वाले को मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
अर्हत् पक्ष के देवता अर्थात् जैन देवताओं को जो पिंड निवेदित किया जाता है, वह भी पूर्ववत् दो प्रकार का होता है। उसमें निश्राकृत को ग्रहण करने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। मृतक भोज
इसे करडुयभक्त या पिंडनिकर भी कहा जाता है। मरने के पश्चात् बारहवें दिन किया जाने वाला भोज मृतक भोज कहलाता है। साधु के लिए मृतक भोज में भिक्षा ग्रहण करना निषिद्ध है। निकाचित आहार
भूतिकर्म आदि के कारण चातुर्मास पर्यन्त प्रतिदिन निबद्धीकृत रूप से जो दान दिया जाता है, वह निकाचित आहार कहलाता है। भाष्यकार के अनुसार निकाचित आहार लेने वाला देशतः पार्श्वस्थ होता है। निकाचित आहार ग्रहण कर्ता को एक लघुमास (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। रचित आहार
असंक्लिष्ट आचार वाले मुनि के प्रसंग में व्यवहारभाष्य में भिक्षा से सम्बन्धित अनेक दोषों का उल्लेख किया गया है, उसमें एक दोष है-रचित आहार । सुविहित मुनि रचित आहार का प्रयोग नहीं कर सकता। व्यवहार भाष्य की टीका में आचार्य मलयगिरि ने रचित का अर्थ किया है-'पात्र में आहार रखकर
१. भगभा २ पृ. ५२१; गिलाणभत्तं ति ग्लानस्य नीरोगतार्थं
२. निचू २ पृ. ४५५ : आरोग्गसालाए जं गिलाणस्स दिज्जति,
तं गिलाणभत्तं। ३. निचू भा. ३ पृ. २२४| ४. नि ११/८२।
५. निचू भा. ३ पृ. २२४ । ६. निभा ३४८९ चू. पृ. २२४। ७.पिनि २१८/१। ८. निचू २ पृ. ४४४ ; पितिपिंडपदाणं वा पिंडणिगरो। ९. व्यभा ८५७।
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