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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१४३ उसके चारों ओर बहुविध व्यञ्जन सजाना।' अभयदेवसूरि के अनुसार मोदकचूर्ण से पुनः मोदक बनाना रचित दोष है, इसे औद्देशिक दोष के कर्म भेद के अन्तर्गत रखा जा सकता है।' संखडि भोज
___जहां जीवों का प्रचुर मात्रा में घात होता है, वह संखडि कहलाता है। अथवा जहां विविध प्रकार की भोजन सामग्री संस्कारित की जाती है, वह संस्कृति-संखडि कहलाती है। मज्झिम निकाय में संखडि को संखति कहा गया है। महावीर ने साधु के लिए संखडि भोज में जाने का निषेध किया है क्योंकि वहां परतीर्थिक साधु के साथ वाद-विवाद या कलह का प्रसंग हो सकता है। निशीथ भाष्य में उल्लेख मिलता है कि जिस दिशा में संखडि-भोज हो, मुनि उस दिशा में न जाए। संखडिभोज में आहार लेने वाले साधु को चार अनुद्घात का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । दैवसिक और रात्रिकी संखडि के दो-दो भेद हैं-पुर: संखडि और पश्चात् संखडि। सूर्योदय के पश्चात् की जाने वाली पुरःसंखडी तथा सूर्यास्त के पश्चात् की जाने वाली पश्चात् संखडि कहलाती है।
___ संखडि-भोज को यदि साधु आसक्ति, दर्प या बिना किसी कारण के ग्रहण करता है तो दोष है। यदि गृह-परिपाटी के क्रम से संखडि वाले घर में जाता है तो कोई दोष नहीं है। यदि किसी पुष्ट आलम्बन या प्रयोजन से संखडि में जाता है तो भी दोष नहीं है। भाष्यकार ने इस संदर्भ में विस्तृत विवेचन किया है। रात्रि-भोजन विरमण
__ यह नियम पिंडग्रहण एवं उसके उपभोग के काल से सम्बन्धित है। उत्तराध्ययन के उन्नीसवें अध्ययन में मृगापुत्र के माता-पिता ने साधुत्व की विभीषिका बताते हुए रात्रि-भोजन विरमण को अत्यन्त दुष्कर कार्य बताया है। साधु के लिए रात्रि-भोजन अनाचीर्ण है। जैन आचार्यों ने इसे शबल दोष के अन्तर्गत माना है। श्रमण के १८ नियमों (व्रतषट्क, कायषट्क....) में एक नियम रात्रि-भोजन का परिहार है। रात्रि-भोजन विरमण की महत्ता को स्थापित करने के लिए महावीर ने भिक्षा के ४६ दोषों के साथ इसका उल्लेख न करके पांच महाव्रत के साथ इसको छठे व्रत के रूप में प्रतिष्ठित किया है। बृहत्कल्प की
१. भगभा २ पृ. ५२१ ; रइयं ति मोदकचूर्णादि पुनर्मोदका-
दितया रचितमौदेशिकभेदरूपम्।। २.बृभा ३१४०; संखडिज्जति जहिं, आऊणि जियाण संखडी
स खलु। ३. मज्झिमनिकाय २/१६। ४. बृभा ३१६०। ५. बृभा ३१४१। ६. इन सब संखडियों में साधु के जाने पर विविध प्रायश्चित्तों
एवं उसके दोषों के वर्णन हेतु देखें बृभा ३१४२-३२०६
टी पृ.८८१-८९७। ७. बृभा ३१७७, टी पृ.८९०; अथ कमेण गृहपरिपाट्या
सङ्खडिगृहं प्राप्तस्ततस्तत्र ग्रहणं भोजनं वा कुर्वाणस्य न
दोषा भवन्ति। ८. उ १९/३०।
९. दश ३/२। १०. सम २१/१, दश्रु २/३ ११. बृभा २८३९, दश ४/१७, राईभोयणवेरमणछट्ठाई।
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