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पिंडनियुक्ति
भाष्यकार एवं चूर्णिकार ने इसकी विस्तृत व्याख्या की है। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह के अनुसार बिना निमंत्रण सहज भाव से प्रतिदिन भिक्षा ग्रहण करना नित्याग्र नहीं है।
आचार्य भिक्षु ने आचार की चौपाई में विस्तार से इसके बारे में वर्णन किया है। (भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर : आचार की चौपाई) आचार्य महाप्रज्ञ ने दशवैकालिक सूत्र के टिप्पण में विस्तार से इस शब्द का विवेचन किया है। निशीथ चूर्णि में शिष्य ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि गृहस्थ प्रतिदिन अपने लिए भोजन बनाता ही है फिर यदि वह आदरपूर्वक निमंत्रण दे तो क्या दोष है ? इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि निमंत्रण में अवश्य देने की बात होती है अत: वहां स्थापना, आधाकर्म, प्राभृतिका, अध्यवपूरक, क्रीत और प्रामित्य आदि दोष भी लग सकते हैं अतः स्वाभाविक भोजन भी निमंत्रणपूर्वक नहीं लेना चाहिए। नित्याग्रपिण्ड ग्रहण करने वाले को लघुमास (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। पुरःकर्म और पश्चात्कर्म
दान देने से पूर्व हाथ या पात्र आदि धोना पुरःकर्म है। इस दोष का सम्बन्ध प्राय: गृहस्थ से है। साधु को ज्ञात हो जाए कि लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा देने के बाद दाता सचित्त जल से हाथ आदि साफ करेगा तो वह आहार साधु के लिए अकल्प्य होता है। पुरःकर्म युक्त हाथ, पात्र, दी और भाजन से आहार ग्रहण करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है।
सहज रूप से उदक से आर्द्र हाथ यदि सूख जाते हैं तो उस दाता से भिक्षा ली जा सकती है लेकिन पुर:कर्म के पश्चात् गीले हाथ सूखने पर भी भिक्षा ग्रहण नहीं की जा सकती। पुरःकर्म में उदकसमारंभ करना उत्कृष्ट अपराध, उदकाई मध्यम अपराध तथा सस्निग्ध हाथ से भिक्षा लेना जघन्य अपराध-पद है। उत्कृष्ट अपराध युक्त भिक्षा ग्रहण करने पर चार लघुमास (आयम्बिल), मध्यम में लघुमास (पुरिमार्ध) तथा जघन्य में पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। बृहत्कल्पभाष्य (१८३१-६३) में पुरःकर्म की विस्तार से व्याख्या की गई है। किमिच्छक
कौन क्या चाहता है, यह पूछकर दिया जाने वाला आहार किमिच्छक है। दशवैकालिक सूत्र में इसे अनाचार के अन्तर्गत माना है। कुछ आचार्यों ने वहां इसे राजपिण्ड का विशेषण भी माना है। इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा लिखित टिप्पणी पठनीय है।'
१. द्र निभा ९९९-१०२१ चू पृ. १०३-१०७। 2.दशअचूप.६०;ण तुजं अहासमावत्तीए दिणे दिणे भिक्खागहणं। ३. देखें दश पृ. ४५-४७। ४. निभा १००३-१००६, पृ. १०३, १०४। ५. व्यभा ८५७।
६. बृभा १८२०, निभा ४०६३;
हत्थं वा मत्तं वा, पुट्विं सीतोदएण जं धोवे।
समणट्ठाए दाया, पुरकम्मं तं विजाणाहि ॥ ७. बृभा १८२९, टी पृ. ५३७। ८. दशहाटी प. ११७ किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छकः। ९. दश पृ. ५२, ५३।
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