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पिंडनिर्युक्ति
शय्यातर नहीं होता, सोने एवं आवश्यक (प्रतिक्रमण) करने पर शय्यातर होता है। यदि रात्रि - प्रवास और सवेरे का प्रतिक्रमण दोनों अन्य स्थान पर किए जाएं तो दोनों स्थानों के स्वामी शय्यातर माने जाते हैं। शय्यातर कब होता है, इस संदर्भ में निशीथ भाष्य एवं उसकी चूर्णि में विस्तृत चर्चा मिलती है।
तृण, डगलग, क्षार, मल्लग, शय्या, संस्तारक, पीढ़ तथा लेप - ये वस्तुएं शय्यारपिण्ड नहीं होतीं अतः ली जा सकती हैं। वस्त्र एवं पात्र सहित शैक्ष भी शय्यातरपिण्ड नहीं होता अर्थात् शय्यातर के पुत्र की दीक्षा हो तो ये वस्तुएं ली जा सकती हैं। अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पादप्रोञ्छन, वस्त्र, पात्र, कम्बल, सूई, क्षुर, कर्णशोधनी, नखरदनी – ये बारह वस्तुएं शय्यातरपिण्ड कहलाती हैं।
शय्यातरपिण्ड का निषेध करने का मुख्य कारण यही रहा कि जिस घर में साधु रहें, वहां बारबार जाने से अतिपरिचय के कारण गृहस्थ आधाकर्म और औद्देशिक दोष युक्त भिक्षा तैयार कर सकता है। प्रतिदिन प्रणीत आहार लेने से आहार की आसक्ति बढ़ती हैं तथा कभी-कभी बार-बार जाने से शय्यातर धर्म से या साधुओं से विमुख भी हो सकता है, जिससे अन्य साधुओं के लिए वसति मिलना कठिन हो जाता है। भाष्यकार ने शय्यातरपिण्ड ग्रहण से होने वाले दोषों का विस्तार से वर्णन किया है।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में इस संदर्भ में दो कथाओं का उल्लेख मिलता है। एक शय्यातर ने साधु को कम्बल दिया । उसके पुत्र और भाई ने भी उसे कम्बल आदि वस्त्र दे दिए। प्रचुर उपकरण के भार के कारण वह साधु अन्यत्र विहार नहीं करता था । देवयोग से उस क्षेत्र में दुर्भिक्ष हो गया। गृहस्वामी ने सोचा कि दुर्भिक्ष में यह साधु और हम दोनों समाप्त हो जाएंगे अतः किसी प्रयोग से साधु को सुभिक्ष प्रदेश में भेजना चाहिए। एक दिन साधु के उत्सर्ग हेतु बाहर जाने पर उसने सारे उपकरणों को बाहर निकालकर उन्हें छिपा दिया और मकान के आग लगा दी। साधु के आने पर कुछ उपकरण उसको दे दिए। वह साधु दूसरे देश में प्रस्थित होने लगा, तब शय्यातर ने कहा - ' -'सुभिक्ष होने पर पुनः यहां आ जाना।' वह साधु सुभिक्ष होने पर वहां आ गया। शय्यातर ने उसके उपकरण पुनः समर्पित कर दिए। इस प्रकार शय्यातरपिण्ड ग्रहण करने से प्रवचन की लघुता एवं अवमानना होती है।
एक गृहपति के घर में पांच सौ साधुओं ने प्रवास किया। साधु प्रतिदिन शय्यातर के यहां प्रथम भिक्षा ग्रहण करते थे । कालान्तर में वह निर्धन हो गया। उन साधुओं के जाने पर अन्य साधु वहां आए । उन्होंने भी वसति की याचना की। गृहपति ने कहा- 'मेरे पास केवल वसति है, प्रथम भिक्षा देने के लिए
१. बृभा ३५२९, प्रसा ८०३ ।
२. बृभा ३५३०, प्रसा ८०२ ।
३. निभा ११५५, चू. पृ. १३४, बृभा ३५३६, टी. पृ. ९८४, ९८५ ।
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४. निभा ११५४, बृभा ३५३५ ।
५. बृभा ३५४०, निभा ११५९ ।
६. बृभा ३५४१-४९, ६३७८ । ७. पिंप्रंटी प. ९० ।
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