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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१३७ भिक्षाचर्या के अन्य दोष
भिक्षाचर्या के जिन दोषों का वर्णन पिण्डनियुक्ति में उपलब्ध है, उस संख्या को अंतिम नहीं माना जा सकता फिर भी पिण्डनियुक्ति के व्यवस्थित वर्णन को देखकर यह कहा जा सकता है कि नियुक्तिकार के समय तक भिक्षाचर्या एवं उससे सम्बन्धित दोषों का व्यवस्थित विकास हो गया था। यद्यपि उद्गम, उत्पादना और एषणा दोष से परिशुद्ध आहार साधु को ग्रहण करना चाहिए, यह उल्लेख भगवती में मिलता है' तथा विकीर्ण रूप से अनेक दोषों का संकेत भी मिलता है लेकिन वहां यह उल्लेख नहीं मिलता कि इनमें कौन से और कितने दोष उद्गम से, कितने उत्पादना से तथा कितने एषणा से सम्बन्धित हैं अतः यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि आगमों में विकीर्ण भिक्षाचर्या के दोषों को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय पिंडनियुक्तिकार को जाता है। इन दोषों के अतिरिक्त भी यदि इस संदर्भ में सामान्य और विशेष नियमों की खोज की जाए तो भिक्षाचर्या से सम्बन्धित अन्य अनेक दोष आगम एवं उसके व्याख्या-साहित्य में विकीर्ण रूप से मिलते हैं। उदाहरण के लिए नित्याग्र भोजन का समावेश एषणा के दोषों में सम्मिलित नहीं है लेकिन इसका उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। दशवैकालिक सूत्र में भी भिक्षा हेतु परिव्रजन के समय लगने वाले अनेक नियम एवं वर्जनाओं का उल्लेख है। यहां हम पिण्डनियुक्ति के अतिरिक्त आगमों में मिलने वाले भिक्षाचर्या से सम्बन्धित दोषों का उल्लेख कर रहे हैं, जिससे शोध विद्यार्थियों को एक ही स्थान पर भिक्षाचर्या के विधि-निषेधों की समग्र जानकारी मिल सके। शय्यातरपिण्ड
साधु को शय्या देकर जो भवसमुद्र का पार पा लेता है, वह शय्यातर कहलाता है। शय्यातरपिंड को सागारिकपिण्ड भी कहा जाता है। शय्यातरपिण्ड साधु के लिए अनाचीर्ण तथा तीर्थंकरों द्वारा निषिद्ध है। बीच के २२ तीर्थंकरों ने भी शय्यातरपिण्ड की अनुज्ञा नहीं दी। इसकी गणना शबल दोष के अन्तर्गत की गई है। दोषबहुलता देखकर ही चूर्णिकार ने शय्यातर के समीप के सात घरों से भिक्षा ग्रहण को अनाचार माना है।
साधु जिसके घर एक रात रुके, वहां का आहार शय्यातरपिण्ड कहलाता है। यदि सुविहित साधु सम्पूर्ण रात्रि जागकर सवेरे के प्रतिक्रमण आदि आवश्यक कार्य अन्यत्र जाकर करता है तो वह गृहस्वामी
१. भग ७/२५; उग्गमुप्पायणेसणासुपरिसद्ध। २. दश ३/२। ३. निचू भा. २ पृ. १३१ ; सेज्जादाणेण भवसमुद्रं तरति त्ति
सिज्जातरो। ४. दश ३/५।
५. निभा ११५९, बृभा ३५४०; तित्थंकरपडिकुट्ठो। ६. प्रसा ८०७। ७. सम २१/१, दश्रु २/३ । ८. दशअचू पृ.६१ जाणि वि तदासण्णाणि सेज्जातरतुल्लाणि
ताणि सत्त वज्जेतव्वाणि।
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