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पिंडनियुक्ति संयोजना दोष-राग-द्वेष से प्रभावित होकर रस बढ़ाने हेतु अंत: और बाह्य संयोजना करने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। दूसरी मान्यता के अनुसार चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार अंत: संयोजना करने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा बहि: संयोजना करने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। प्रमाण दोष-स्त्री और पुरुष के लिए जितने कवल निर्धारित हैं, उस प्रमाण से अधिक आहार करने पर अथवा संयम जीवन-यात्रा के लिए जितना अपेक्षित है, उससे अधिक भोजन करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अंगार दोष-मनोज्ञ आहार को आसक्ति पूर्वक खाने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। धूमदोष-अमनोज्ञ आहार का द्वेषपूर्वक उपभोग करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। कारण दोष-निष्कारण आहार करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। दूसरी मान्यता के अनुसार निष्कारण आहार करने पर लघुमास (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। कारण उपस्थित होने पर यदि साधु आहार नहीं करता है तो चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
व्याख्या-साहित्य में श्वासोच्छ्वास के साथ जप के प्रायश्चित्त का उल्लेख भी मिलता है। ओघनियुक्ति भाष्य के अनुसार भिक्षा लाने के बाद यदि सम्यक् आलोचना नहीं की हो अथवा गुरु को पूरा भक्तपान न दिखाया हो, भिक्षा में सूक्ष्म एषणा का दोष लगा हो तो उसकी विशुद्धि हेतु ८ श्वासोच्छ्वास के साथ नमस्कार मंत्र का जप करने का विधान है।
यहां सामान्यतः भिक्षाचर्या से सम्बन्धित मुख्य दोषों के प्रायश्चित्तों का उल्लेख किया गया है। जीतकल्पसूत्र एवं उसके भाष्य में भिक्षाचर्या के दोषों के भेद-प्रभेदों के प्रायश्चित्तों का प्रकारान्तर से भी वर्णन किया गया है।
१. जीभा १६२०%
अंतो बहि चउगुरुगा, बितियाएसेण बाहि चउलहुगा।
चउगुरुगेऽभत्तटुं, चउलहुगे होति आयामं॥ २. बृभा ५४०, टी पृ. १५८। ३. जीभा १६३०। ४. जीभा १६४३। ५. जीभा १६४३।
६. जीभा १६४४
णिक्कारण भंजते. एत्थ वि लहगा उदाणमायाम।
बितियादेसे लहुओ, आवत्ती दाण पुरिमहूं। ७. जीभा १६४५,
ण वि भुंजइ कारणतो, एत्थ वि लहुगा तु दाणमायाम। ८. ओभा २७४। ९. विस्तार हेतु देखें जीसू ३६-४४, जीभा १६७५-१७१९ ।
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