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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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का प्रमर्दन करती हुई तथा षट्काय से लिप्त हस्त वाली स्त्री-इन सबसे भिक्षा लेने पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त होता है लेकिन सामान्यतया इनका प्रायश्चित्त चारलघु (आयम्बिल) आता है। बृहत्कल्प की टीका में उल्लिखित दायक दोष के प्रायश्चित्तों में कुछ अंतर है। वहां कुष्ठ रोगी और नपुंसक से लेने पर चारगुरु (उपवास) तथा पिंजन, कर्तन और प्रमर्दन करती हुई स्त्री के हाथ से आहार लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा शेष निषिद्ध दायकों के हाथ से लेने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। उन्मिश्र दोष-जीतकल्पभाष्य में उन्मिश्र दोष के प्रायश्चित्त का वर्णन नहीं है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार सचित्त अनन्त से उन्मिश्र आहार लेने पर चारगुरु (उपवास), मिश्र अनंत उन्मिश्र लेने पर मासगुरु (एकासन), सचित्त प्रत्येककाय वनस्पति से उन्मिश्र लेने पर चार लघु (आयम्बिल) तथा मिश्र प्रत्येक वनस्पति से उन्मिश्र लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। प्रत्येक वनस्पति तथा अनंतकाय वनस्पति के बीज से उन्मिश्र आहार लेने पर पणंग (निर्विगय) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अपरिणत दोष-भावतः अपरिणत को ग्रहण करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। बृहत्कल्पभाष्य में द्रव्यतः अपरिणत प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन भी मिलता है। पृथ्वी आदि को अपरिणत (सचित्त) लेने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा अनंतकाय अपरिणत लेने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त
की प्राप्ति होती है। लिप्त दोष-लिप्त दोष में संसक्त हाथ और पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा सावशेष पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर लघुमास (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। भाष्यकार के अनुसार छर्दित दोष के आद्य तीन भंगों में चार लघु (आयम्बिल) तथा चरम भंग में अनेषणीय होने पर चार गुरु (उपवास) की प्राप्ति होती है। छर्दित दोष-छर्दित दोष युक्त भिक्षा लेने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।' बृहत्कल्पभाष्य के टीकाकार ने इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि छर्दित दोष की चतुर्थ चतुभंगी के प्रथम तीन भंगों से युक्त भिक्षा लेने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। चरम भंग अनाचीर्ण होता है।" १. जीभा १५७९-१५८१।
७. जीभा १५९९ । २. बृभा ५३९, टी पृ. १५७।
८. बृभाटी पृ. १५७। ३. बृभाटी पृ. १५७।
९. जीभा १६०१। ४. बृभा ५३९, टी पृ. १५७।
१०. बृभाटी पृ. १५७; छर्दिते-आद्येषु त्रिषु भङ्गेष प्रत्येक ५. जीभा १५९३।
चतुर्लघुकम् , चरमभङ्गेऽनाचीर्णम्। ६. बृभा ५३९, टी पृ. १५७।
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