________________
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१३३ शंकित दोष-जीतकल्पभाष्य में शंकित दोष के प्रायश्चित्त का संकेत नहीं किया गया है। प्रक्षित दोष-म्रक्षित दोष में पृथ्वीकाय से प्रक्षित रूक्ष हाथ और पात्र से भिक्षा लेने पर पणग (निर्विगय), कर्दम मिश्रित हाथ से भिक्षा लेने पर लघुमास (पुरिमार्ध) तथा शुष्क पृथ्वीकाय से मेक्षित हाथ से भिक्षा लेने पर चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
सस्निग्ध और सरजस्क हाथ और पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर पणग (निर्विगय) तथा आर्द्र हाथ और पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
___ म्रक्षित दोष में पुरःकर्म और पश्चात्कर्म दोष लगने पर चारलघु (आयम्बिल) का प्रायश्चित्त आता है। कुछ आचार्य इसमें मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त का उल्लेख भी करते हैं।'
मेक्षित दोष में परित्त वनस्पतिकाय म्रक्षित हाथ से भिक्षा लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध)५, अनंतकाय वनस्पतिकाय से म्रक्षित हाथ से भिक्षा ग्रहण करने पर मासगुरु (एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। मिश्र प्रत्येक वनस्पति से मेक्षित हाथ से भिक्षा ग्रहण करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। गर्हित मल आदि से प्रक्षित हाथ या पात्र से भिक्षा लेने पर तथा गोरस और जीवों से संसक्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेने पर चारलघुक (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती
निक्षिप्त दोष-अनंत वनस्पतिकाय को छोड़कर सचित्त पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक अनंतर निक्षिप्त दोष युक्त भिक्षा लेने पर चारलघु (आयम्बिल) तथा परम्पर निक्षिप्त दोष युक्त भिक्षा लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। मिश्र पृथ्वीकाय में अनंतर निक्षिप्त दोष युक्त भिक्षा लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा मिश्र पृथ्वीकाय में परम्पर निक्षिप्त दोष युक्त भिक्षा लेने पर पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अनंतकाय वनस्पति पर अनंतर निक्षिप्त भिक्षा ग्रहण करने पर चार गुरु (उपवास) तथा अनंतकाय पर परम्पर निक्षिप्त भिक्षा ग्रहण करने पर मासगुरु (एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
बृहत्कल्पभाष्य एवं उसकी टीका में निक्षिप्त दोष के प्रायश्चित्त के संदर्भ में विस्तृत वर्णन मिलता है। प्रत्येक मिश्र वनस्पति पर अनन्तर और परम्पर निक्षिप्त आहार लेने पर मासलघु (पुरिमार्ध), प्रत्येक वनस्पति के बीज पर अनन्तर एवं परम्पर निक्षिप्त आहार लेने पर पणग (निर्विगय) तथा अनंत वनस्पति
१. जीभा १४९३। २. जीभा १४९५। ३. जीभा १४९६। ४. बृभा ५३७, टी पृ. १५६ ;
अन्ये मासलधु-प्रतिपन्नवन्तः।
५. जीभा १४९७। ६. जीभा १४९८। ७. बृभा ५३७, टी पृ. १५६ : मिश्रे परीत्ते सर्वत्र मासलघः । ८. जीभा १५०५, १५०९। ९. जीभा १५४४, १५४५, निचू भा. ४ पृ. १९३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org