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पिंडनियुक्ति आजीवपिण्ड-जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प-इन पांच प्रकार के आजीव का प्रयोग करके आहार ग्रहण करने पर चार-चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। वनीपकपिण्ड-पांच प्रकार के वनीपक (श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि और श्वान)-भक्तों के समक्ष उनकी प्रशंसा करके भोजन प्राप्त करने पर प्रत्येक दोष में चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। चिकित्सापिण्ड-चिकित्सापिण्ड दोष दो प्रकार का होता है-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म-चिकित्सा पिण्ड ग्रहण करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) तथा बादर चिकित्सापिण्ड ग्रहण करने पर चार लघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। क्रोधपिण्ड-क्रोधपिण्ड प्राप्त करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। मानपिण्ड-मानपिण्ड में भी क्रोधपिण्ड की भांति चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। मायापिण्ड-मायापिण्ड ग्रहण करने पर मासगुरु (एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। लोभपिण्ड-लोभपिण्ड ग्रहण करने पर चारगुरु (उपवास) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। संस्तवपिण्ड-यह चार प्रकार का होता है-१. पूर्वसम्बन्धी संस्तव २. पश्चात्सम्बन्धी संस्तव ३. पूर्ववचन संस्तव तथा ४. पश्चात्वचन संस्तव। इनमें पूर्व और पश्चात्सम्बन्धी संस्तव में यदि स्त्री के साथ संस्तव होता है तो चारगुरु (उपवास) तथा पुरुष के साथ संस्तव होने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त आता है। वचन सम्बन्धी पूर्वसंस्तव और पश्चात्संस्तव भी दो प्रकार का होता है। स्त्री सम्बन्धी वचन संस्तव होने पर मासगुरु (एकासन) तथा पुरुष सम्बन्धी वचन संस्तव होने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। विद्या और मंत्र पिण्ड-विद्यापिण्ड और मंत्रपिण्ड प्राप्त करने पर चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। चूर्ण और योगपिण्ड-चूर्णपिण्ड और योगपिण्ड का प्रयोग करने पर साधु को चारलघु (आयम्बिल) प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मूलपिण्ड-मूलपिण्ड दो प्रकार का होता है-गर्भाधान और गर्भ-परिशाटन-दोनों प्रकार के मूलकर्म का प्रयोग करके आहार प्राप्त करने वाले मुनि को मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
१. जीभा १३५१।
६. जीभा १४२४, १४२५ । २. जीभा १३६४।
७. जीभा १४३७। ३. जीभा १३८५।
८. जीभा १४४९। ४. जीभा १४२० ; लोभे चउगुरुगा तू, आवत्ती दाण होयऽभत्तटुं। ९. जीभा १४६८ ; दुविहे वि मूलकम्मे, पच्छित्तं होति मूलं तु। ५. जीभा १४२२, १४२३।
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