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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१३९ कुछ भी नहीं है।' साधुओं ने कहा- शय्यातर भिक्षा हमारे लिए कल्प्य नहीं है।' गृहपति ने कहा-'हमारे घर से खाली पात्र लेकर साधु बाहर जाएं, यह अमंगल होगा अतः मैं वसति नहीं दूंगा।' साधुओं ने उसे समझाकर वसति प्राप्त की। इस प्रकार शय्यातर पिण्ड ग्रहण से वसति की प्राप्ति दुर्लभ हो सकती है।
पंचाशक प्रकरण में भी शय्यातरपिण्ड के दोष' तथा शय्यातरपिण्ड ग्रहण न करने से होने वाले लाभों के सम्बन्ध में अन्य आचार्यों के अभिमत प्रस्तुत हैं।'
__ अपवाद स्वरूप शय्यातरपिण्ड आठ कारणों से अनुज्ञात है-१. अनागाढ़ या आगाढ़ ग्लानत्व २. शय्यातर का निमंत्रण ३. शय्यातर का आग्रह ४. दुर्लभ द्रव्य ५. अशिव ६. ऊणोदरी ७. प्रद्वेष ८. राजद्विष्ट। राजपिण्ड
निशीथ का नवां उद्देशक राजपिण्ड से सम्बन्धित अनेक वर्जनाओं से जुड़ा हुआ है। बीच के २२ तीर्थंकरों एवं महाविदेह के तीर्थंकरों ने भी साधु के लिए राजपिण्ड आहार ग्रहण करने का निषेध किया है। अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपोंछन-ये आठ प्रकार की वस्तुएं यदि राजा के यहां से ली जाएं तो ये राजपिण्ड कहलाती हैं। आचार्य हरिभद्र ने राजपिण्ड आहार ग्रहण करने से होने वाले दोषों का वर्णन किया है। बृहत्कल्पभाष्य में इस संदर्भ में विस्तृत विवेचन मिलता है।
निशीथ सूत्र में राजपिण्ड आहार को ग्रहण करने एवं उसका भोग करने वाले मुनि के लिए चातुर्मासिक प्रायश्चित्त की बात कही गई है। राजा के निमित्त बना सरस और गरिष्ठ भोजन ग्रहण करने से रस-लोलुपता बढ़ सकती है इसलिए राजपिण्ड का निषेध किया गया है। शय्यातर पिंड की भांति राजपिंड भी विशेष अपवादों में ग्रहण किया जा सकता है। नित्याग्रपिण्ड
नित्याग्र का अर्थ है-एक घर से प्रतिदिन निमंत्रित भिक्षा ग्रहण करनार दशवैकालिक सूत्र में इसे अनाचार दोष माना है तथा निशीथ सूत्र में नित्यपिण्ड का भोग करने वाले को प्रायश्चित्त का भागी बताया है।३ निशीथ में नियाग के स्थान पर 'णितिय अग्गपिंड' तथा नितिय पिंड शब्द का प्रयोग हुआ है।
१. पिंप्रटी प. ९०, ९१॥
७. पंचा १७/२२॥ २. पंचा १७/१८।
८. पंचा १७/२१॥ ३. पंचा १७/१९।
९.नि ९/१,२। ४. इन सब कारणों की विस्तृत व्याख्या हेतु देखें बुभा ३५५०- १०. विस्तार हेतु देखें बृभा ६३९६,६३९७। ३६०२,६३७९।
११. दशहाटी प २०३; नियागं ति नित्यमामन्त्रितं पिण्डम्। ५. पंचा १७/२०।
१२. दश ३/२। ६. निभा २५००, बृभा ६३८४, पादप्रोञ्छन के स्थान पर १३. नि २/३२। रजोहरण का उल्लेख भी मिलता है।
१४. नि २/३१, ३२।
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