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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१२३ रखे। मूलाचार एवं आयुर्वेद के ग्रंथों के अनुसार उदर को चार भागों में विभक्त करके दो भाग आहार से, एक भाग पानी तथा चौथा भाग वायु-संचरण के लिए खाली रखा जाए, ऐसा उल्लेख मिलता है।
. ऋतु के अनुसार भी नियुक्तिकार ने आहार के प्रमाण का निर्देश दिया है। शीतकाल में पानी के लिए एक भाग तथा आहार के लिए चार भाग कल्पित हैं। मध्यम शीतकाल में दो भाग पानी तथा तीन भाग आहार, उष्ण काल में दो भाग पानी तथा तीन भाग आहार तथा अति उष्ण काल में तीन भाग पानी तथा दो भाग आहार-यह प्रमाण है। छठा भाग सर्वत्र वायु-संचरण के लिए विहित है। इनमें पानी का एक भाग तथा भोजन के दो भाग स्थिर हैं, उनमें हानि-वृद्धि नहीं होती। अति उष्णकाल में पानी के दो भाग तथा अति शीतकाल में आहार के दो भाग बढ़ जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अति उष्ण काल में भोजन के दो भाग कम हो जाते हैं तथा अति शीतकाल में पानी के दो भाग कम हो जाते हैं। छह भागों में तीसरा और चौथा भाग अस्थिर है। पानी विषयक पांचवां, वायु विषयक छठा तथा आहार विषयक पहला और दूसरा भाग-ये चारों भाग अवस्थित हैं। इस विधि से वायु और पानी के लिए पेट खाली रखना मिताहार है। इससे भी कम खाना अल्प आहार है। प्रमाणातिरेक दोष पांच प्रकार से घटित होता हैप्रकाम आहार-प्रमाणातिरेक आहार का प्रथम भेद है-प्रकाम आहार। उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लेख मिलता है कि जैसे प्रचण्ड पवन के साथ प्रचुर ईंधन वाले वन में आग लगने पर दावाग्नि जल्दी से शान्त नहीं होती, वैसे ही प्रकामभोजी की इंद्रियाग्नि भी कभी शान्त नहीं होती। पुरुषों के लिए बत्तीस तथा स्त्रियों के लिए अट्ठाईस कवल आहार प्रमाणोपेत है। नपुंसक के लिए २४ कवल प्रमाण है। उससे अधिक आहार ग्रहण करना प्रकाम आहार है। व्यवहारभाष्य में बत्तीस कवल आहार को प्रकाम आहार माना है। वहां कवल का प्रमाण व्यावहारिक और बुद्धिगम्य रूप से व्याख्यात है। उसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के अपने आहार की मात्रा का जो बत्तीसवां भाग है, वह कुक्कुटि-उदर-प्रमाण जानना चाहिए। इसका दूसरा वैकल्पिक अर्थ शान्त्याचार्य की टीका में प्राप्त होता है। अंडक का अर्थ होता है-मुख, सहज रूप से मुंह अविकृत किए बिना जितना आहार उसमें डाला जा सके, वह प्रमाणोपेत कवल है। हरिवंश पुराण में कवल-प्रमाण बताते हुए कहा गया है कि एक हजार चावल एक कवल प्रमाण जितना होता है। कवल-प्रमाण के लिए आंवले के आकार का भी उल्लेख मिलता है। वैसे सबकी शरीर-रचना और पाचन-शक्ति समान नहीं
१. पिनि ३१३/२। २. पिनि ३१३/३, ४। ३. पिनि ३१३/५, ६, विस्तार हेतु देखें मवृ प. १७५ । ४. जीभा १६३८-४२। ५. उ ३२/११। ६. जीभा १६२२,१६२३ ।
७. व्यभा ३६८८। ८. व्यभा ३६८२;
निययाहारस्स सया, बत्तीसइमो उ जो भवे भागो।
तं कुक्कुडिप्पमाणं, नातव्वं बुद्धिमंतेहिं॥ ९. उशांवृ प६०४। १०. हपु११/१२५।
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