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पिंडनियुक्ति कालातिक्रान्त दोष है। साधु उस आहार को तीसरी प्रहर तक परिभोग कर सकता है। बाद में कालातिक्रान्त होने से वह आहार परिभोग के लिए अकल्प्य हो जाता है, उसे परिष्ठापित करना पड़ता है। एषणीय आहार को आधा योजन (दो कोश) से अधिक दूर ले जाकर परिभोग करना मार्गातिक्रान्त दोष है। क्षेत्रातिक्रान्त आहार का परिभोग करने पर चार गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। इससे आज्ञाभंग, संयमविराधना आदि दोष भी उत्पन्न होते हैं। क्षेत्रातिक्रान्त आहार का परिभोग करने से होने वाले दोषों का भाष्य-साहित्य में विस्तार से विवेचन किया गया है। भिक्षाचर्या के नियमों में परिवर्तन
___ महावीर से लेकर आज तक भिक्षाचर्या सम्बन्धी नियमों में ऐतिहासिक दृष्टि से क्या-क्या परिवर्तन हुए, कितने नियम कृत्कृत्य हुए तथा कितने नए नियम बने, यह ऐतिहासिक दृष्टि से शोध का विषय है। पिण्डनियुक्ति को पढ़ने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार साधु की आचार-संहिता में समय के अन्तराल में बहुत परिवर्तन आया है। वस्त्र धोने से पूर्व साधु के लिए जो सात दिन की विश्रमणा-विधि का उल्लेख है, उसकी आज न तो कल्पना की जा सकती है और न ही वैसी परिस्थितियां हैं। उदाहरणस्वरूप मुनि दिन में कितनी बार भिक्षार्थ जाए, इसी नियम को देखें तो उत्तराध्ययन तक की परम्परा कहती है कि मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षार्थ जाए क्योंकि मुनि के लिए दिन में एक समय ही आहार करने का विधान था। दशवैकालिक सूत्र, जो मुनि-आचार का प्रतिनिधि ग्रंथ है, उसमें इस बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। 'एगभत्तं च भोयणं' का उल्लेख वहां मिलता है फिर भी यह संभावना की जा सकती है कि शय्यंभव का पुत्र मुनि मनक जो उम्र में बहुत छोटा था, उस समय उन्होंने आपवादिक रूप में शैक्ष के लिए अन्य समय भी भिक्षा का विधान किया होगा तथा भिक्षाचर्या के समय में भी परिवर्तन हुआ होगा तभी उन्होंने इस बारे में कोई उल्लेख नहीं किया।
___ सामान्यतः साधु गृहस्थ के घर भोजन नहीं कर सकता लेकिन दशवैकालिक ५/१/८२, ८३ में उल्लिखित कथ्य इस ओर संकेत करता है कि भिक्षा करते समय यदि साधु की इच्छा हो जाए तो वह ऊपर से छाए हुए, चारों ओर से संवृत और प्रासुक स्थान में बैठकर आहार कर सकता है। आचार्य शय्यंभव को यह नियम क्यों बनाना पड़ा, यह भी ऐतिहासिक दृष्टि से खोज का विषय है।
व्याख्या-साहित्य के अनुसार मुनि को भिक्षार्थ अकेले नहीं अपितु दो मुनियों के साथ जाना चाहिए। अकेले मुनि के समक्ष निम्न उपसर्ग आ सकते हैं-स्त्री जनित उपसर्ग, पशु जनित उपसर्ग,
१. प्रसा८१३। २. भग ७/२४। ३. बुभा५२८७; परमद्धजोयणाओ, उज्जाणपरेण चउगुरूहोति।
४. निभा ४१६८। ५. बृभा ५२८८, निभा ४१६९, ४१७० चू पृ. ३५६ ।
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