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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१२५ भी आहार का परित्याग न करना भी कारण दोष है। अनगारधर्मामृत में कारण दोष का उल्लेख नहीं है। पिण्डनियुक्ति में मुनि के लिए आहार के छह प्रयोजन निर्दिष्ट हैं१. वेदना-क्षुधा से बड़ी कोई वेदना नहीं होती अतः इसे शान्त करने के लिए आहार करना चाहिए। २. वैयावृत्त्य-भूखा व्यक्ति सेवा नहीं कर सकता अतः ग्लान, वृद्ध, तपस्वी आदि की सम्यक् सेवा हेतु
___ आहार करना चाहिए। ३. ईर्यापथ-शुद्धि-बुभुक्षित व्यक्ति ईर्यापथ के प्रति जागरूक नहीं रह सकता अतः ईर्यापथ तथा षडावश्यक
आदि अनुष्ठानों को सम्यक् रूप से करने के लिए भोजन ग्रहण करना चाहिए। ४. संयम-प्रेक्षा आदि संयम की विधिवत् अनुपालना के लिए आहार ग्रहण करना चाहिए। ५. प्राणप्रत्यय-बिना आहार के शारीरिक बल क्षीण न हो अतः प्राण-धारण हेतु आहार करना चाहिए। ६. धर्मचिन्तन-अनाहार की स्थिति में साधु ज्ञान-परावर्तन तथा अनुप्रेक्षा आदि का प्रयोग करने में सक्षम
नहीं रहता अत: आहार करना चाहिए। आहार न करने के हेतु
आहार करने के छह कारणों की भांति आगमों में आहार न करने के भी छह कारणों का उल्लेख मिलता है। पिण्डनियुक्ति में जिन कारणों का उल्लेख है, उन्हीं का संकेत उत्तराध्ययन, स्थानांग आदि ग्रंथों में हुआ है१. आतंक-ज्वर आदि आकस्मिक बीमारी के उत्पन्न होने पर उसके निवारण हेतु। २. उपसर्ग-तितिक्षा-राजा आदि का उपसर्ग उत्पन्न होने पर। ३. ब्रह्मचर्य-सुरक्षा-ब्रह्मचर्य की नव गुप्तियों की रक्षा हेतु। ४. प्राणि-दया-वर्षा तथा ओस आदि में प्राणियों के प्रति दया करने के लिए। ५. तप हेतु-उपवास से लेकर पाण्मासिक तप के लिए। ६. शरीर-व्युत्सर्ग-शरीर का व्युत्सर्ग करने के लिए संलेखना या मारणांतिक अनशन करने हेतु।' परिभोगैषणा के अन्य दोष
भगवती सूत्र में मुनि की आहारचर्या के संदर्भ में क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त और मार्गातिक्रान्त आहार का परिभोग करने का निषेध किया गया है। वहां सूर्योदय से पहले आहार ग्रहण करके सूर्योदय के बाद परिभोग करना क्षेत्रातिक्रान्त दोष है। प्रथम प्रहर में गृहीत आहार को अंतिम प्रहर में परिभोग करना
१. पिनि ३१८, स्था ६/४१, उ २६/३२,
प्रसा ७३७, ओनि ५८०। २. उ २६/३४, स्था ६/४२, पिनि ३२०, प्रसा ७३८ । ३. बृहत्कल्प, निशीथ आदि ग्रंथों तथा उनके भाष्यों में
कालातिक्रान्त और क्षेत्रातिक्रान्त-इन दो शब्दों का ही
प्रयोग हुआ है, वहां मार्गातिक्रान्त शब्द का प्रयोग नहीं है। भगवती के क्षेत्रातिक्रान्त शब्द की व्याख्या विमर्शनीय है क्योंकि वहां क्षेत्र का नहीं, अपितु काल का सम्बन्ध है। इस संदर्भ में टीकाकार अभयदेव सूरि एवं आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती भाष्य भा. २ पृ. ३३६ में विस्तार से चर्चा की है।
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