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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
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मिलता है। बृहत्कल्पभाष्य में भी अत्यंत संक्षेप में सांकेतिक रूप में प्रायश्चित्त - विधि का उल्लेख है । निशीथ भाष्य में भी कहीं-कहीं प्रायश्चित्तों का वर्णन है । पिण्डविशुद्धिप्रकरण की टीका में सामूहिक रूप से वर्गीकृत रूप से भिक्षाचर्या सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्तों का उल्लेख है, वहां मूलकर्म को सबसे अधिक सावद्य माना है।
जैन आचार्यों ने सांकेतिक रूप से चार गुरु, चारलघु, गुरुमास, लघुमास तथा पणग आदि प्रायश्चित्तों का उल्लेख किया है, जिनका प्रायश्चित्त - कर्ता मुनि तप रूप में निर्वाह करता है। यहां भिक्षा सम्बन्धी सभी दोषों से सम्बन्धित प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन किया जा रहा है
आधाकर्म – आधाकर्म आहार ग्रहण करने पर चार गुरु का प्रायश्चित्त आता है। इसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास होता है।
औद्देशिक— औद्देशिक के भेद-प्रभेद और उसके प्रायश्चित्त को चार्ट के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है
औद्देशिक
उद्देश (मासगुरु)
आदेश समादेश
उद्देश समुद्देश (मासलघु) (मासलघु) (मासलघु) (मासलघु)
ओघ
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१. बृभा ५३३ - ५४० । २. पिंप्रटी प. ८८, ८९ ।
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(मासलघु)
(पुरिमार्ध)
समुद्देश
(मासगुरु)
आदेश
(मासगुरु)
उद्देश
( चार लघुमास )
विभाग
उद्दिष्ट कृत
समादेश
(मासगुरु)
समुद्देश
(चार गुरुमास)
३. जीभा १९१९५ ।
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आदेश
समादेश
(चार गुरुमास ) ( चार गुरुमास)
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