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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
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प्रत्यनीक कृत उपसर्ग, भिक्षा की अविशोधि तथा महाव्रतों का उपघात आदि।
ओघनियुक्ति में एकाकी भिक्षार्थ जाने के मनोवैज्ञानिक कारण बताए गए हैं• जिसे अपनी लब्धि का गर्व है। • जो गृहस्थ के घर धर्मकथा शुरू कर देता है। (अत: उसके साथ कोई जाना नहीं चाहता।) • जो मायावी, आलसी और रसलोलुप होता है। • जो अनेषणीय आहार ग्रहण करने की इच्छा करता है। • दुर्भिक्ष में जब भिक्षा की दुर्लभता होती है।
लेकिन वर्तमान में साध्वियां दो तथा साधु एकाकी भिक्षार्थ जाते हैं। भिक्षाचर्या के नियमों में कब, कैसे, क्यों परिवर्तन हुआ, उसकी पृष्ठभूमि क्या रही, यह स्वतंत्र रूप से शोध का विषय है। भिक्षा के समय शारीरिक और मानसिक स्थिति
भिक्षार्थ जाते समय तथा भिक्षा ग्रहण करते समय केवल ४२ दोषों को टालना ही पर्याप्त नहीं होता, इसके साथ और भी अनेक छोटी-छोटी बातों का उल्लेख दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन में विस्तार से मिलता है। आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट लिखा है कि ईर्यासमिति, हरियाली का वर्जन आदि नियमों का उपयोग रखने वाला मुनि ही शुद्ध पिण्ड की गवेषणा कर सकता है। भिक्षा के समय साधु की शारीरिक और मानसिक स्थिति कैसी होनी चाहिए, इसका दशवैकालिक सूत्र में मनोवैज्ञानिक चित्रण प्रस्तुत है। भिक्षार्थ जाने वाले मुनि का चित्त अनुद्विग्न तथा विक्षेप रहित होना चाहिए। मानसिक त्वरा करने वाला भिक्षु न ईर्यासमिति का शोधन कर सकता है और न ही एषणा समिति के प्रति जागरूक रह सकता है अतः भिक्षु मानसिक दृष्टि से असंभ्रान्त अर्थात् अनाकुलभाव से आहार की गवेषणा करे। आहार करते समय ही नहीं बल्कि भिक्षा करते समय भी मुनि अमूर्छित रहे । यदि भिक्षा के समय चित्तवृत्ति मूर्च्छित और आसक्त होगी तो शुद्ध आहार की गवेषणा नहीं हो सकेगी। नियुक्तिकार ने इस संदर्भ में गोवत्स का उदाहरण दिया है। सेठ की पुत्रवधू अलंकृत और विभूषित होकर गोवत्स को आहार देती है तो भी बछड़ा केवल अपने चारे को खाने में लीन रहता है। वह स्त्री के रूप, रंग या शृंगार की ओर ध्यान नहीं देता, वैसे ही साधु भी इंद्रियविषय में अमूर्च्छित रहता हुआ आहार की गवेषणा करे। इसकी दूसरी व्याख्या यह भी की जा सकती है कि जैसे गाय अच्छी- बुरी घास का भेद किए बिना चरती रहती है, वैसे ही मुनि भी उत्तम और सामान्य कुलों का भेद न करते हुए सामुदानिक भिक्षा ग्रहण करे।
१. ओनि ४१२;
एकाणियस्स दोसा, इत्थी साणे तहेव पडिणीए। भिक्खविसोहि महव्वय तम्हा सबितिज्जए गमणं॥
२. ओनि ४१३, टी प. १५०। ३. पंचा १३/३१। ४. दश ५/१/२ : चरे मंदमणुव्विग्गो अव्वविखत्तेण चेयसा।
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