________________
१२८
पिंडनियुक्ति शारीरिक दृष्टि से चलते समय मुनि की दृष्टि युग-प्रमाण भूमि पर टिकी रहे। युग का अर्थ हैशरीर-प्रमाण भूमि। युग-प्रमाण की व्याख्या करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि यदि चलते समय दृष्टि को बहुत दूर डाला जाए तो सूक्ष्म शरीर वाले जीव दिखाई नहीं देते। यदि दृष्टि को अत्यन्त निकट रखा जाए तो सहसा पैर के नीचे आने वाले जीवों को टाला नहीं जा सकता इसलिए शरीर प्रमाण क्षेत्र देखकर चलने का निर्देश किया गया है। भिक्षा के समय गमन सम्बन्धी दोष का प्रतिक्रमण न करने पर मासलघु (पुरिमार्ध) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।
___ मुनि जीवन में हर पदार्थ याचित होता है। तृण का टुकड़ा भी अयाचित नहीं होताअतः मुनि मानसिक रूप से अदीन होकर भिक्षा ग्रहण करे। भिक्षा मिलने या न मिलने पर विषाद का अनुभव न करे। इस संदर्भ में साधु की मस्तिष्कीय धुलाई करते हुए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि गृहस्थ के घर अनेक मनोज्ञ और सरस खाद्य-पदार्थ हो सकते हैं। पदार्थ सामने दिखाई देने पर भी यदि गृहस्थ वह पदार्थ मुनि को न दे तो मुनि क्रोध या खेद प्रदर्शित न करे। उस समय मुनि यह चिन्तन करे कि यह इसकी इच्छा है दान दे या न दे। यदि दाता थोड़ा दे तो भी उसकी निंदा न करे। अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान को सुरक्षित रखने हेतु इस बात का ध्यान रखे कि यदि अन्य भिक्षाचर गृहस्थ के घर में पहले से प्रवेश किए हुए हों तो भिक्षार्थ उस घर में प्रवेश न करे।' भिक्षाचर्या के दोष सम्बन्धी प्रायश्चित्त
- भगवान् महावीर ने प्रायश्चित्त को बहुत महत्त्व दिया इसीलिए छेद सूत्रों के रूप में स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हो गई। भूल या अपराध होने पर महावीर ने दंड का नहीं अपितु प्रायश्चित्त का विधान किया क्योंकि इसमें व्यक्ति स्वयं भूल स्वीकार करके गुरु से प्रायश्चित्त लेता है। दंड और कानून में न अपराधबोध होता है और न ही हृदय-परिवर्तन।
छेदसूत्रों में साधु के द्वारा भिक्षाचर्या में लगने वाले दोषों के प्रायश्चित्तों का विकीर्ण रूप में उल्लेख मिलता है। असंथरण की स्थिति में निशीथ भाष्यकार ने एक विकल्प प्रस्तुत किया है कि भिक्षाचर्या के ४२ दोषों को हृदयपट पर श्रुतज्ञान रूपी कर से लिखकर जिस दोष में अल्पतर प्रायश्चित्त हो, उसका सेवन करना चाहिए। सबसे कम प्रायश्चित्त है-पणग (निर्विगय) तथा सबसे अधिक प्रायश्चित्त है चार गुरु (उपवास) जीतकल्पभाष्य में भिक्षाचर्या में लगने वाले दोषों के प्रायश्चित्त का विस्तार से क्रमबद्ध वर्णन
१. दश ५/१/३: दशवैकालिक के पांचवें पिण्डैषणा अध्ययन
में चलते समय एवं भिक्षा करते समय ध्यान रखने योग्य
अनेक बिन्दुओं का निर्देश किया गया है । २. उ २/२८ ; सव्वं से जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं ।
३. दश ५/२/२६-२८। ४. दश ५/२/१२, १३। ५.निभा ४४५;बायालीसंदोसे, हिययपडे सुतकरेण विरएत्ता।
पणगादी गुरु अंते, पुव्वप्पतरे भयसु दोसे॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org