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पिंडनियुक्ति होती। शारीरिक और मानसिक श्रम के आधार पर भी आहार की मात्रा में अंतर आता है। निकाम आहार-प्रतिदिन प्रमाण से अधिक आहार करना निकाम आहार है। मनुस्मृति के अनुसार बहुत अधिक भोजन स्वास्थ्य तथा दीर्घायु में बाधक, स्वर्गप्राप्ति एवं पुण्य में अवरोधक तथा इस लोक में प्रद्वेष को बढ़ाने वाला होता है। प्रणीत आहार-गरिष्ठ अथवा अतिस्निग्ध आहार प्रणीत कहलाता है, जैसे-घेवर, स्नेह प्रक्षित मंडक आदि। अधिक प्रणीत रस युक्त आहार व्यक्ति को वैसे ही उद्दीप्त और विनष्ट कर देता है, जैसे स्वादु फल वाले वृक्ष को पक्षी। अतिबहुक आहार-अपनी भूख से बहुत अधिक भोजन करना अतिबहुक है। अतिबहुशः आहार-दिन में अनेक बार या तीन बार से अधिक भोजन करना अतिबहुशः है। स-अंगार दोष
राग, आसक्ति, गृद्धि तथा मूर्छा से प्रासुक एषणीय आहार-पानी की प्रशंसा करते हुए आहार करना अंगार दोष है। जैसे अग्नि से जलने पर धूमरहित होने पर कोयला अंगारा बन जाता है, वैसे ही राग रूपी इंधन से जलने पर जो चारित्र को नियमत: अंगारे के समान दग्ध कर देता है, वह अंगार दोष है। ग्रंथकार कहते हैं कि प्रासुक आहार भी यदि आसक्तिवश खाया जाता है तो वह चारित्र को दग्ध कर देता
स-धूम दोष
नीरस या अप्रिय आहार की निंदा करते हुए उसे द्वेष, क्रोध या क्लेश जनित परिणामों से खाना धूम दोष है। जैसे धूम से कलुषित चित्रकर्म सुशोभित नहीं होता, वैसे ही धूम दोष से युक्त मलिन चारित्र भी सुशोभित नहीं होता। जलती हुई द्वेषाग्नि अप्रीति के धूम से चारित्र को धूमिल बनाती हुई तब तक जलती रहती है, जब तक उसे अंगारे के समान नहीं बना देती। कारण दोष
स्वाद के लिए आहार करना मुनि के लिए निषिद्ध है। मूलाचार के अनुसार मुनि को बल, आयु, तेज-वृद्धि आदि के लिए नहीं अपितु ज्ञान, संयम और ध्यान की साधना के लिए खाना चाहिए। क्षुधा आदि छह कारणों के बिना आहार करना कारण दोष है तथा आहार-त्याग के छह कारण उपस्थित होने पर
१. मनु २/५७। २. बृभा ६००९; नेहागाढं कुसणं, तु एवमाई पणीयं तु। ३. उ ३२/१०। ४. भग ७/२२, पिनि ३१४, मूला ४७७ । ५. जीभा १६४६। ६. पिनि ३१४/१, २।
७. पिनि ३१४, मूला ४७७, भग ७/२२ । ८. जीभा १६५०;
जह वावि चित्तकम्म, धूमेणोरत्तयं ण सोभइ उ।
तह धूमदोसरत्तं, चरणं पि ण सोभए मइलं॥ ९. पिनि ३१४/३। १०. मूला ४८१।
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