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पिंडनियुक्ति भी उचित नहीं है क्योंकि परिष्ठापन से अनेक चींटी आदि जीवों का व्याघात संभव है अतः बचे हुए द्रव्य में खांड आदि की संयोजना विहित है। इसी प्रकार ग्लान के लिए, जिसको भोजन अरुचिकर लगता है, राजपुत्र आदि सुखोचित साधु के लिए तथा अपरिणत शैक्ष आदि के लिए संयोजना विहित है।' प्रमाणातिरेक दोष
मुनि के लिए महावीर ने एक विशेषण का प्रयोग किया है-मायण्णे-अर्थात् आहार की मात्रा को जानने वाला। जिस आहार से वर्तमान और भविष्यकाल में धृति-मानसिक स्वास्थ्य, बलशारीरिक बल और संयमयोगों की हानि न हो, वह प्रमाणयुक्त आहार है। इससे अधिक आहार साधु के लिए दुःखकारक होता है। आसक्ति वश या अतृप्तिवश तीन बार से अधिक बार अति मात्रा में आहार करना प्रमाणातिरेक दोष है। भगवती सूत्र के अनुसार ३२ कवल से अधिक आहार करना प्रमाणातिक्रान्त आहार है।
नियुक्तिकार और भाष्यकार ने हित, मित और अल्प आहार को प्रमाण युक्त आहार माना है। हितकर आहार को इहलोक और परलोक से जोड़कर भाष्यकार ने एक चतुभंगी प्रस्तुत की है
• इस लोक में हितकर, परलोक में नहीं। • परलोक में हितकर, इस लोक में नहीं। • इस लोक में हितकर, परलोक में भी हितकर। • न इस लोक में हितकर, न परलोक में।
अनेषणीय खीर, दही, गुड़ आदि अविरुद्ध पदार्थों को राग द्वेष युक्त भाव से खाना इस लोक में हितकर है, परलोक में नहीं। एषणा से शुद्ध लेकिन अमनोज्ञ आहार समतापूर्वक खाना परलोक के लिए हितकर है, इस लोक के लिए नहीं। पथ्य और एषणा से शुद्ध आहार दोनों लोकों के लिए हितकर है तथा अपथ्य और अनेषणीय आहार राग-द्वेष युक्त होकर खाना इहलोक और परलोक-दोनों के लिए अहितकर है।
नियुक्तिकार ने मिताहार का वैज्ञानिक ढंग से निरूपण किया है। सामान्यतः व्यक्ति कल्पना से उदर के छह भाग करके तीन भाग आहार के लिए, दो भाग पानी तथा छठा भाग वायु-संचरण के लिए खाली
१.पिनि ३०९।
३. जीभा १६२८, १६२९ ; २. (क) बृभा ५८५२
__अहवा अतिप्पमाणो, आतुरभूतो तु भुंजए जंतु। पडुपन्नऽणागते वा, संजमजोगाण जेण परिहाणी। तं होति अतिपमाणं....
ण वि जायति तं जाणसु, साहुस्स पमाणमाहारे॥ ४. भग ७/२४। (ख) पिंप्र ९५ ;
५. पिनि ३१३, जीभा १६३२ । धिइ-बल-संजमजोगा, जेण ण हायंति संपइ पए वा। ६. जीभा १६३३-३७ । तं आहारपमाणं, जइस्स सेसं किलेसफलं॥
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