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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१२१ वहां सातवें शतक में आहार के प्रसंग में सामान्य रूप से अंगार, धूम और संयोजना का वर्णन है। उसके बाद आहार और पानी से सम्बन्धित क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त और मार्गातिक्रान्त के साथ प्रमाणातिक्रान्त दोष का वर्णन है। वहां कारण दोष का उल्लेख नहीं हुआ है। इस प्रसंग से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भगवती सूत्र की रचना तक ग्रासैषणा या मांडलिक दोषों के रूप में इनका विकास नहीं हुआ था। संयोजना
स्वाद और रस-उत्कर्ष बढ़ाने हेतु एषणीय और प्रासुक खाद्य-पदार्थ में अन्य खाद्य-वस्तु का संयोग करना संयोजना दोष है। संयोजना दो प्रकार की होती है-बाह्य और आन्तरिक।
गृहस्थ के घर किसी वस्तु में अनुकूल द्रव्यों का संयोग करना बाह्य संयोजना तथा उपाश्रय में भोजन करते समय जो संयोजना की जाती है, वह आंतरिक संयोजना है। यह तीन प्रकार से की जाती है-पात्र में, कवल में तथा मुंह में । पंचवस्तु में आभ्यन्तर संयोजना के दो ही भेद किए हैं-पात्र में तथा मुख में।
पिण्डनियुक्ति में चूंकि आहार एवं भिक्षाचर्या का वर्णन है अतः उन्होंने भक्तपान विषयक संयोजना का ही वर्णन किया है लेकिन प्रवचनसारोद्धार में उपकरण विषयक बाह्य और आंतरिक संयोजना का भी उल्लेख है। टीकाकार ने उपकरणविषयक बाह्य संयोजना को स्पष्ट करते हुए कहा है कि किसी साधु को कहीं से सुंदर चोलपट्ट मिल गया। वह विभूषा के लिए नयी पछेवड़ी मांगकर वसति के बाहर पहनता है, वह उपकरण विषयक बाह्य संयोजना है। यदि वसति के अंदर ऐसा करता है तो आंतरिक उपकरण संयोजना है।
पात्र में रखी वस्तु में घी या मिर्च-मसाला आदि अन्य द्रव्य का मिश्रण करना पात्रविषयक संयोजना है। हाथ में स्थित कवल की स्वादवृद्धि हेतु उसमें शर्करा या अन्य द्रव्य का मिश्रण कवल विषयक संयोजना है तथा मुंह में कवल लेने के पश्चात् उसकी स्वादवृद्धि हेतु किसी अन्य द्रव्य को मुख में डालना मुख विषयक संयोजना है। आसक्ति और स्वादवश संयोजना करने वाला मुनि राग-द्वेष के निमित्त से अपनी आत्मा के साथ कर्मों का संयोग करता है। कर्मों का संयोग अनंत दु:ख का कारण बनता है।
_____ संयोजना दोष के अपवाद बताते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि यदि पर्याप्त खाने के बाद भी खाद्य सामग्री बच जाए तो अवशेष सामग्री का उपभोग करने के लिए संयोजना अनुज्ञात है। उदाहरण स्वरूप भोजन की तृप्ति के बाद बचे हुए घी को बिना रोटी और शर्करा के खाना संभव नहीं है, उसका परिष्ठापन
१. भग ७/२२॥ २. भग ७/२२, पिनि ३०६। ३. पिनि ३०५, जीभा १६१३ ।
४. पंव ३५९। ५. पिनि ३०५, मवृ प. १७२, बृभाटी पृ. २३९ । ६. पिनि ३०७, जीभा १६१६, १६१७।
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