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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
परिभोग की विधि
ओघनियुक्ति एवं उसके भाष्य में परिभोग के लिए पात्र से कवल ग्रहण करने एवं मुख में कवलप्रक्षेप के संदर्भ में मनोवैज्ञानिक, व्यावहारिक और मार्मिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। पात्र से कवल ग्रहण करने में पशु-पक्षी की उपमा से आहार करने वाले की मनोवृत्ति का सजीव वर्णन किया गया है। अविधि भुक्त में नियुक्तिकार ने काक और श्रृंगाल का उदाहरण दिया है, जैसे काक गोबर में छिपे अनाज
दानों को खा लेता है, शेष को चारों ओर बिखेर देता है तथा खाते समय भी इधर-उधर देखता रहता है, वैसे ही मनोज्ञ आहार करना, गिराते हुए आहार करना या इधर-उधर दूसरे के पात्र में झांकते हुए आहार करना अवधि भुक्त है । शृगाल अपने भोज्य के भिन्न-भिन्न भागों को खाता है, क्रमशः नहीं खाता, वैसे ही ओदन आदि यदि सुरभित तीमन से मिला हुआ हो तो ओदन को छोड़कर तीमन को पीना अविधिभुक्त है । उत्कृष्ट - अनुत्कृष्ट द्रव्यों को समीकृत करके खाना विधि सम्मत है। सिंह के समान अपने भोज्य को खण्ड-खण्ड करके प्रतर रूप में क्रमशः खाना विधिभुक्त है । जो साधु अविधिपूर्वक भोजन करता है, उसको आचार्य कल्याणक प्रायश्चित्त देते हैं, जिससे आगे वह प्रसंग पुनरुक्त न हो।
मुख में कवल - प्रक्षेप की विधि का भगवती सूत्र में जो वर्णन है, वह ओघनियुक्ति भाष्य में भी मिलता है। मुख में कवल डालते समय अधिक मिर्च आदि हो तो मुनि सूं-सूं का शब्द न करे, भोजन चबाते समय चप-चप की आवाज न करे, भोजन न अधिक शीघ्रता से करे और न अधिक विलम्ब से । भिक्षु खाते समय भोजन को नीचे गिराते हुए न खाए । दशवैकालिक सूत्र का 'जयं अपरिसाडयं " का उल्लेख इसी ओर संकेत करता है। आहार के पश्चात् मुनि पात्र में लगे लेप या खाद्य-पदार्थ को अंगुलि से पोंछकर खाए। पदार्थ चाहे सुगंध युक्त हो या दुर्गन्ध युक्त, वह अंश मात्र भी जूठा न छोड़े।' ओघनियुक्ति में इन सब बातों के साथ मन, वचन और काया से उपयुक्त विशेषण का प्रयोग भी हुआ है अर्थात् आहार के समय मुनि मन से विकृत चिन्तन न करे, वचन से आहार के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त न करे तथा काया से यह प्रकट न करे कि ऐसे विकृत आहार को कौन खाएगा ?" इस प्रकार आहार करने वाले के परिभोग-विशुद्धि होती है।
परिभोगैषणा या मांडलिक दोष
पिण्डनिर्युक्ति में द्रव्य ग्रासैषणा के संदर्भ में मच्छीमार तथा एक मत्स्य की मार्मिक कथा का निर्देश है, जिसमें मत्स्य स्वयं अपने मुख से मच्छीमार को अपनी कथा कहता है कि मैं तीन बार बलाका
मुख में जाकर भी छूट गया। मच्छीमार के जाल में २१ बार फंसने पर भी उससे कुशलतापूर्वक बाहर निकल गया। एक बार जाल में पकड़े जाने पर भी मैं धागे में पिरोने के समय उसके चंगुल से मुक्त हो गया ।
१. ओभा २९६-९८ ।
२. ओभा २८८ ।
३. ओभा ३०० ।
४. भग ७ / २५ ।
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५. दश ५/१/९६ |
६. दश ५ / २ / १ ।
७. ओभा २८९, टी प. १८७ ।
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