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पिंडनियुक्ति
मुझ शक्तिसम्पन्न को तुम पकड़ना चाहते हो, यह तुम्हारी निर्लज्जता है। इस दृष्टान्त का उपनय जीतकल्प भाष्य तथा पिण्डनियुक्ति की मलयगिरि टीका में मिलता है। यहां मत्स्य के समान साधु, मांस स्थानीय भक्तपान तथा मात्स्यिक स्थानीय राग और द्वेष हैं। जिस प्रकार अनेक उपायों के द्वारा भी वह मत्स्य पकड़ा नहीं गया, वैसे ही आत्मानुशासन का अभ्यास करते हुए साधु को चिन्तन करना चाहिए कि जब भिक्षाचर्या के ४२ दोषों से मैं छला नहीं गया, फिर आहार-परिभोग के समय राग-द्वेष के माध्यम से मेरी आत्मा नहीं छली जानी चाहिए। इस भावना से स्वयं को भावित करना भाव ग्रासैषणा है। यह संकल्प साधु को अनुकूल-प्रतिकूल खाद्य की उपस्थिति में भी अनासक्त और तटस्थ रखता है।
प्रस्तुत प्रसंग में ओघनियुक्ति में निर्दिष्ट ससार और असार चतुर्भंगी को प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। जो मुनि यह संकल्प करता है कि मैं अन्त-प्रान्त और रूखा-सूखा आहार करूंगा, यदि वह भोजन के समय भी वैसा ही आहार करता है तो वह ससार उपविष्ट और ससार उत्थित है अर्थात् वह शुभपरिणामों से भोजन-मंडली में प्रविष्ट होता है तथा शुभ परिणामों से वैसा ही आहार करता है, यह प्रथम भंग है। दूसरे भंग में मुनि शुभ संकल्प से भोजन-मंडली में उपविष्ट होता है लेकिन प्रतिपतित परिणामों के कारण खाने में अनासक्त नहीं रह पाता अत: वह ससार उपविष्ट तथा असार उत्थित होता है। तीसरे भंग में भोजन के समय आसक्त परिणामों से उपविष्ट होता है लेकिन भोजन करते समय अन्त-प्रान्त भोजन स्वल्प मात्रा में ग्रहण करता है, वह असार उपविष्ट तथा ससार उत्थित है तथा चौथे प्रकार का साधु असार उपविष्ट और असार उत्थित होता है, वह दोनों दृष्टियों से आसक्त और कमजोर मनोबल वाला होता है। यहां नियुक्तिकार ने समुद्र वणिक् के उदाहरण का भी निर्देश दिया है, जो जहाज को माल से भरकर ले गया
और सुवर्ण, हिरण्य आदि भरकर लौटा अर्थात् वह ससार गया और ससार लौटा, इसी प्रकार चतुर्भंगी के अन्य भंगों को समझना चाहिए।
पिण्डनियुक्ति में जहां ग्रासैषणा के पांच दोषों का उल्लेख हुआ है, वहां प्रमाणातिरेक के स्थान पर अतिबहुक तथा कारण दोष के स्थान पर अनर्थ (बिना प्रयोजन) शब्द का प्रयोग हुआ है। अनगारधर्मामृत में कारण दोष के अतिरिक्त तीन दोषों का ही उल्लेख हुआ है, वहां दोषों के क्रम में भी अंतर है।
भगवती सूत्र में ग्रासैषणा या मांडलिक दोष के रूप में अंगार आदि दोषों का उल्लेख नहीं मिलता।
१. जीभा १६०६, मवृ प. १७१।।
आहार के प्रति द्वेष प्रकट करता है, वह साधु असार होता २. ओनि ५४४, ५४५, पिनि ३०२/५, जीभा १६०७, १६०८। है क्योंकि उसका दृष्टिकोण ज्ञान, दर्शन और चारित्र से ३. ओनि ५६७-७० ; उद्गम, उत्पादना और एषणा के रहित होता है। दोष से रहित साधारण आहार को जो राग द्वेष रहित ४. ओनि ५७१, ५७२, टी प. १८७, १८८। अंत:करण से ग्रहण करता है, वह साधु ससार होता है ५. पिनि ३०३/१ ;संजोयणमइबहुयं, इंगाल सधूमगं अणट्ठाए। क्योंकि उसका दृष्टिकोण ज्ञान, दर्शन और चारित्र से ६. अनध ५/३७। युक्त है तथा जो उद्गम आदि दोषों से रहित साधारण
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