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पिंड नियुक्ति
अनुसंधान का विषय है कि पिण्डनिर्युक्तिकार ने मंडली शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया ? दिगम्बर परम्परा साधु एकाकी भिक्षार्थ जाता है। वह पाणिपात्र होता है, जिस घर में मुनि के अभिग्रह पूर्ण होते हैं, १४ मल और बत्तीस अन्तराय से रहित भिक्षा मिलती है, वहीं खड़े-खड़े दिन में एक बार ही भिक्षा ग्रहण करता है। श्वेताम्बर साधु के लिए काष्ठ पात्र में भिक्षा लाकर अपने स्थान पर आहार करने का निर्देश है। भिक्षा लाने के बाद मुनि क्षणभर विश्राम करे, जिससे श्रमजन्य विषमता और धातुक्षोभ शान्त हो जाए ।' विश्राम के समय कायोत्सर्ग में वह यह चिन्तन करे कि मेरे द्वारा आनीत आहार पर आचार्य या मुनि अनुग्रह करे तो मैं निहाल हो जाऊं, धन्य हो जाऊं और मैं यह मानूं कि उन्होंने मुझे भव-सागर से तार दिया है ।" चिन्तन के पश्चात् वह आचार्य को निवेदन करे कि मेरे द्वारा आनीत आहार अतिथि, तपस्वी, ग्लान, वृद्ध या शैक्ष को देने की कृपा करें। वे उस निमंत्रण को स्वीकार करें अथवा न करें, पर परिणामविशुद्धि से निमंत्रण देने वाले की चित्त शुद्धि और विपुल निर्जरा होती है तथा तद्गत ज्ञानादि का लाभ होता है। आगम - साहित्य में प्राप्त आहार के संविभाग पर बहुत जोर दिया गया है। असंविभागी मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता ।" यदि मुनि आहार लेते समय लोभ के कारण उस वस्तु को किसी अन्य वस्तु से छिपाता है तो इस स्वादवृत्ति और रसलोलुपता के कारण वह सघन कर्मों का बंधन करता है। आत्म-तुष्टि के अभाव में उसके लिए निर्वाण भी दुर्लभ हो जाता है।
आचार्य तिलक ने भिक्षाचर्या को दो शब्दों से निष्पन्न मानकर दो भिन्न अर्थों में इसको व्याख्यायित किया है। प्रथम 'भिक्षा' शब्द घूमकर शुद्ध एषणीय भिक्षा लाने के संदर्भ में तथा द्वितीय 'चर्या' शब्द भक्षण के अर्थ में स्वीकृत किया है, वैसे भी 'चर' धातु भक्षण अर्थ में भी प्रयुक्त होती है अतः परिभोगैषणा के समय लगने वाले दोष भी भिक्षाचर्या के अन्तर्गत आते हैं। ये ग्रासैषणा या मांडलिक दोष भी कहलाते हैं । उद्गम और उत्पादन से शुद्ध आहार लेकर भी यदि परिभोग के समय विवेक या अनासक्ति नहीं रहती तो वह शुद्ध आहार भी दोष सहित हो जाता है । दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि मुनि तिक्त, कटु, कसैला, खट्टा-मीठा या नमकीन, जो भी आहार उपलब्ध हो, उसे मधुघृत की भांति खाए । वह व्रण पर लेप तथा शकट-चक्र पर अभ्यंग की भांति संयम - भार का सम्यक् वहन करने के लिए आहार करे, न कि आस्वाद या आसक्ति के लिए । आगमों में उल्लेख मिलता है कि मुनि स्वाद के लिए आहार को बांयी दाढ़ा से दाहिनी दाढ़ा में न ले जाए। जैसे सांप बिल में सीधा प्रवेश करता है, वैसे ही अनासक्त भाव से आहार को गले से नीचे उतार दे।"
१. दश ५/१/९३, ओघनियुक्ति भाष्य (२७४) के अनुसार भिक्षा लाकर मुनि ८ उच्छ्वास तक नमस्कार महामंत्र का जप करे। २. दश ५ / १ / ९४ /
३. पंव ३४६, ओनि ५२३-५२५ ।
४. मवृ प. ७५ ।
५. दश ९/२/२२ ।
६. दश ५/२/३१, ३२ ।
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७. दश ५/१/९७ ।
८. ओनि ५४६ ।
९. आ ८ / १०१ ; से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेमाणे णो वामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारेज्जा आसाएमाणे दाहिणाओ वा हणुयाओ वामं हणुयं णो संचारेज्जा ।
१०. दशअचू पृ. ८ ; जहा सप्पो सर त्ति बिलं पविसति तहा.... ।
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