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पिंडनियुक्ति कहलाता है। दिगम्बर परम्परा में लिप्त दोष की परिभाषा कुछ भिन्न मिलती है। वहां गेरु, हरताल, खड़िया, मनःशिला, गीला आटा तथा अपक्व ओदन आदि से लिप्त हाथ या पात्र से आहार देना लिप्त दोष है। इस परिभाषा के अनुसार फिर प्रक्षित दोष और लिप्त दोष में कोई अंतर नहीं रहता।
पिण्डनियुक्ति में वर्णित लिप्त दोष की परिभाषा भी चिन्तनीय है क्योंकि यहां भिक्षा के समय दाता या गृहस्थ से लगने वाले दोषों की चर्चा है न कि इस बात का विमर्श करना कि मुनि को कैसा आहार लेना चाहिए और कैसा नहीं। इसका विस्तृत वर्णन दशवैकालिक सूत्र में मिलता है। ऐसा संभव लगता है कि लेपयुक्त पदार्थ लेने से पश्चात्कर्म की प्राय: संभावना रहती है इसलिए लिप्त दोष का उल्लेख किया गया है। नियुक्तिकार ने अलेपकृद् , अल्पलेपकृद् और बहुलेपकृद्-इन तीनों प्रकार के द्रव्यों की सूची प्रस्तुत की है तथा गुरु और शिष्य के प्रश्नोत्तर के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया है। ग्रंथकार ने संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र और सावशेष द्रव्य तथा प्रतिपक्षी असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र एवं निरवशेष द्रव्य-इन छह के परस्पर संयोग से होने वाले आठ विकल्पों को प्रस्तुत किया है। १०. छर्दित दोष
देय वस्तु को गिराते हुए भिक्षा देना छर्दित दोष है। दशवैकालिक सूत्र में इस प्रकार की भिक्षा ग्रहण करने का निषेध है। दिगम्बर साहित्य में इस दोष का परित्यजन या त्यक्त दोष नाम मिलता है। पिण्डनियुक्ति में छर्दन दोष का सम्बन्ध केवल गृहस्थ दाता से है लेकिन दिगम्बर साहित्य में इस दोष की दो रूपों में व्याख्या की गई है। वहां गृहस्थ और मुनि दोनों के साथ इस दोष का सम्बन्ध है। गृहस्थ के द्वारा गिराते हुए दी जाने वाली भिक्षा लेना तथा भोजन के समय गिराते हुए भोजन करना अथवा एक वस्तु को गिराकर अन्य इष्ट वस्तु खाना त्यक्त या परित्यजन दोष है। अनगारधर्मामृत में इसे छोटित दोष नाम से व्याख्यायित किया है।
छर्दन दोष के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। इन तीनों चतुर्भंगियों के सारे विकल्प प्रतिषिद्ध हैं। छर्दित दोष युक्त आहार ग्रहण करने वाले साधु को आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना आदि दोष लगते हैं।
नियुक्तिकार छर्दित दोष युक्त भिक्षा न लेने का कारण बताते हुए कहते हैं कि अचित्त द्रव्य यदि उष्ण है तो उसके भूमि पर गिरने से दाता जल सकता है तथा पृथ्वीकाय आदि जीवों की विराधना हो सकती है। यदि शीत द्रव्य का छर्दन होता है तो भी पृथ्वी आदि जीवों की विराधना संभव है। इस प्रसंग में नियुक्तिकार ने मधुबिन्दु का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है।
१. मूला ४७४, अनध ५/३५। २. पिनि २९६-९८। ३. इन भंगों के लिए देखें म्रक्षित दोष भूमिका पृ. १०४।। ४. दश ५/१/२८।
५. चासा ७२/१। ६. मूला ४७५। ७. अनध ५/३१। ८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४९।
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