________________
११४
पिंडनियुक्ति बुझाने वाली २८. अग्नि को इधर-उधर चलाने वाली या बुझाने वाली २९. गोबर आदि से लीपती हुई ३०. मज्जन-स्नान आदि करती हुई ३१. दूध पीते बालक को छोड़कर भिक्षा देती हुई।
प्रवचनसारोद्धार की टीका में २९ अयोग्य दाताओं के नाम मिलते हैं, वहां इनके क्रम में भी अंतर है-१. स्थविर, २. अप्रभु, ३. नपुंसक, ४. कंपमान, ५. ज्वरग्रस्त, ६. अंध, ७. बाल, ८. मत्त, ९. उन्मत्त, १०. लूला, ११. लंगड़ा, १२. कोढ़ी, १३. बंधनबद्ध, १४. पादुका पहना हुआ, १५. धान्य का कंडन करती हुई, १६. पीसती हुई, १७. अनाज भंजती हुई, १८. चरखा कातती हुई, १९. कपास लोठती हुई, २०. कपास अलग करती हुई, २१. रुई पीजती हुई, २२. अनाज आदि दलती हुई, २३. दही का मन्थन करती हुई, २४. भोजन करती हुई, २५. गर्भिणी, २६. बालवत्सा, २७. छ: काय जीवों से युक्त हाथ वाली, २८. छ: काय जीवों का घात करती हुई, २९. संभावित भयवाली।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण में ३८ दोषों का उल्लेख है, वहां पिंडनियुक्ति में वर्णित आभोग और अनाभोग दायकों का उल्लेख नहीं मिलता है।
अनगारधर्मामृत में रजस्वला, गर्भिणी, अन्य सम्प्रदाय की आर्यिका, शव को श्मशान ले जाने वाले, मृतक के सूतक वाले तथा नपुंसक आदि दायक वर्जित हैं।
पिण्डनियुक्ति में वर्णित दायक के ४० दोषों में प्रथम २५ व्यक्तियों से ग्रहण की भजना है। विशेष अपवाद की स्थिति में इनसे ग्रहण किया जा सकता है, जैसे ८ वर्ष से कम आयु वाले बालक से भिक्षा ग्रहण करना अकल्प्य है लेकिन यदि मां या परिजन के समक्ष बालक भिक्षा दे तो अल्प मात्रा में उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। ७. उन्मिश्र दोष
सचित्त मिश्रित भिक्षा ग्रहण करना उन्मिश्र दोष है। अनगारधर्मामृत में इसके लिए विमिश्र अथवा मिश्र दोष का उल्लेख है। पिण्डविशुद्धिप्रकरण के अनुसार भिक्षा देने योग्य तथा भिक्षा के अयोग्य वस्तुओं को मिलाकर भिक्षा देना उन्मिश्र दोष है । दशवैकालिक में उल्लेख मिलता है कि यदि अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि पुष्प, बीज और हरियाली से उन्मिश्र हों तो वह भक्तपान साधु के लिए अकल्पनीय होता है। मूलाचार में भी उन्मिश्र दोष की यही व्याख्या मिलती है।
उन्मिश्र दोष मुख्यतः तीन प्रकार का होता है-१. सचित्त २. अचित्त ३. मिश्र। इनकी तीन
१. प्रसाटी प. १५१-५३।
४. अनध ५/२८, ५/३६। २. अनध ५/३४।
५. पिंप्र८९;जोग्गमजोग्गं च दुवे, विमीसिउंदेइ जंतमम्मीसं। ३. इसी प्रकार अन्य दाता के दोषों और अपवादों के लिए ६. मूला ४७२ ; देखें पिनि २७३-२८८/७ गाथाओं का अनुवाद एवं मव
पुढवी आऊ य तहा, हरिदा बीया तसा य सज्जीवा। प. १५९-१६४।
पंचेहिं तेहिं मिस्सं, आहारं होदि उम्मिस्सं॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org