________________
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
११७
लभिात
।
एषणा के दश दोषों के क्रम एवं नामों में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर परम्परा में कुछ अंतर है। यहां कुछ ग्रंथों में प्राप्त दोषों का क्रम एवं शब्दभेद के अंतर को चार्ट के द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा हैपिण्डनियुक्ति । मूलाचार | अनध
दशवैकालिक १. शंकित १. शंकित १. शंकित १. शंकित ५/१/४४ २. म्रक्षित २. म्रक्षित २. पिहित २. मेक्षित ५/१/३२-३६ ३. निक्षिप्त ३. निक्षिप्त ३. म्रक्षित ३. निक्षिप्त ५/१/५९-६२ ४. पिहित ४. पिहित ४. निक्षिप्त ४. पिहित ५/१/४७ ५. संहृत ५. संव्यवहरण ५. छोटित ५. संहृत ५/१/३०, ३१ ६. दायक ६. दायक ६. अपरिणत ६. दायक ५/१/२९, ३९-४२, ६३ ७. उन्मिश्र ७. उन्मिश्र | ७. साधारण ७. उन्मिश्र ५/१/५, ५/१/५७ ८. अपरिणत ८. अपरिणत |८. दायक ८. अपरिणत ५/१/३७, ५/१/७० ९. लिप्त ९. लिप्त ९. लिप्त ९. लिप्त ५/१/३२
१०. छर्दित । १०. छोटित १०. विमिश्र | १०. छर्दित ५/१/२८ • मूलाचार में संहृत दोष के स्थान पर संव्यवहरण तथा अनगारधर्मामृत में साधारण दोष का उल्लेख है। • छर्दित दोष के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में छोटित दोष का उल्लेख मिलता है। • उन्मिश्र दोष के स्थान पर अनगारधर्मामृत में विमिश्र तथा मिश्र दोष का उल्लेख मिलता है। परिभोगैषणा : आहार-मंडली
आगमों में मुनि के सामुदायिक जीवन की सात मंडलियों का उल्लेख मिलता है, जिनमें एक आहार-मंडली है। प्राप्त आहार का साधु दो प्रकार से परिभोग करते हैं-१. मंडली में २. एकाकी। ओघनियुक्ति में उल्लेख मिलता है कि मंडली में भोजन करने वाले साधु सभी एक दूसरे की प्रतीक्षा करके एकत्रित होकर आहार करते हैं। प्रत्येक मंडली में कुछ समुद्दिशक होते हैं, जो स्वयं भिक्षा के लिए नहीं जाते लेकिन मंडली में आहार करते हैं, जैसे अति ग्लान, बाल, वृद्ध, आचार्य आदि-ये भिक्षा लाने में असमर्थ होते हैं। इसका कारण है कि शैक्ष भिक्षा-विधि को नहीं जानता, अतिथि और गुरु को सम्मान के कारण भिक्षा में नहीं भेजा जाता, असहुवर्ग अर्थात् राजपुत्र आदि मुनि सुकुमारता के कारण भिक्षा नहीं जा सकते तथा अलब्धिधारी मुनि, जिन्हें अंतराय कर्म के कारण सहजतया आहार नहीं मिलता, वे भी मंडली में आहार करते हैं। इन सब पर कोई एक साधु उपग्रह नहीं करता, सबके सहयोग से कार्य होता है। यह
१, २. मूला ४६२, अनध ५/२८1
गाथाओं में उस दोष को समाहित किया जा सकता है। ३. दशवैकालिक सूत्र में एषणा के प्रायः दोष विकीर्ण ४. पंव ३४३ ।
रूप से मिलते हैं। लिप्त नाम से दोष का उल्लेख नहीं ५. ओनि ५२२। है लेकिन पुरःकर्म और पश्चात् कर्म से सम्बन्धित ६. ओनि ५५३।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org