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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
११५ चतुर्भगियों में अंतिम दो चतुर्भगियों में आद्य तीन विकल्प प्रतिषिद्ध तथा चौथे विकल्प की भजना है। प्रथम चतुभंगी के चारों विकल्पों में भिक्षा प्रतिषिद्ध है। संहृत द्वार की भांति इसमें भी पृथ्वीकाय आदि के सांयोगिक भंग समझने चाहिए तथा शुष्क और आर्द्र के चार विकल्प संहरण दोष की भांति ही जानने चाहिए।
उन्मिश्र और संहृत दोष में अन्तर बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि कल्प्य और अकल्प्य-दोनों प्रकार की देय वस्तु को मिश्रित करके भिक्षा देना उन्मिश्र दोष है तथा भाजनस्थ अदेय वस्तु का अन्यत्र संहरण करके उसमें कल्प्य वस्तु डालकर भिक्षा देना संहत दोष है। ८. अपरिणत दोष
जो वस्तु पूर्णतः अचित्त न हुई हो अथवा जिसको देने का दाता का मन न हो, उसे लेना अपरिणत दोष है। दशवैकालिक सूत्र में अपरिणत के लिए अनिव्वुड' शब्द का प्रयोग हुआ है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार तिलोदक, तण्डुलोदक, उष्णजल, चने का धोवन, तुषोदक यदि पूर्ण अचित्त न हुए हों अथवा
और भी वस्तुएं जो अपरिणत हों, उन्हें लेना अपरिणत दोष है। यह दो प्रकार का होता है-द्रव्य अपरिणत तथा भाव अपरिणत। दाता और ग्रहणकर्ता की दृष्टि से इन दोनों के दो-दो भेद होते हैंद्रव्य विषयक अपरिणत-यह षट्काय से सम्बन्धित होने के कारण छह प्रकार का होता है। उदाहरण स्वरूप सचेतन पृथ्वी जब तक सजीव है, तब तक अपरिणत है और जीव रहित होने के बाद वह परिणत कहलाती है। इसी प्रकार अप्काय आदि को जानना चाहिए। भाव विषयक अपरिणत-जो वस्तु दो या अधिक व्यक्तियों से सम्बन्धित है, उसमें एक व्यक्ति की साधु को देने की इच्छा हो और दूसरे की या अन्य की इच्छा न हो तो वह दाता सम्बन्धी भावतः अपरिणत है। इसी प्रकार भिक्षार्थ गए दो मुनियों में एक मुनि ने देय वस्तु को एषणीय माना और दूसरे ने एषणीय नहीं माना, वह ग्राहक सम्बन्धी भावतः अपरिणत है अत: अकल्प्य है।'
___टीकाकार मलयगिरि ने अनिसृष्ट और दातृभाव से अपरिणत का अंतर स्पष्ट किया है। उनके अनुसार अनिसृष्ट में सामान्यतः दाता परोक्ष होता है लेकिन दातृभाव से अपरिणत में दाता समक्ष होता है। भिक्षा देने की असहमति दोनों की होती है। ९. लिप्त दोष
लेपकृद् पदार्थ लेने से रसलोलुपता बढ़ती है अत: दूध, दही आदि लेपकृद् द्रव्य लेना लिप्त दोष
१. पिनि २९१/१। २. पिनि २९१, मवृ प. १६५। ३. पिंप्र ९०। ४. दश ३/७1
५.मूला ४७३। ६.पिनि २९३। ७. पिनि २९४, २९५, जीभा १५९०-९२ । ८. मवृ प. १६६।
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