________________
११२
पिंडनियुक्ति इनमें शुष्क वस्तु को संहत करने से जीव-हिंसा की संभावना कम रहती है अतः शुष्क पर शुष्क को संहृत किया जाए तो वह वस्तु साधु के लिए ग्राह्य हो सकती है।
संहृत दोष से षट्काय जीव की विराधना का प्रसंग संभव है इसलिए संहृत दोष युक्त आहार साधु के लिए अकल्प्य है। पुन: इसको भी ग्रंथकार ने स्तोक और बहु के आधार पर चतुर्भंगी के माध्यम से समझाया है
• थोड़े शुष्क पर थोड़ा शुष्क। • थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क।
• बहु शुष्क पर थोड़ा शुष्क। • बहु शुष्क पर बहु शुष्क। जहां थोड़े शुष्क पर बहु शुष्क तथा बहु शुष्क पर बहु शुष्क संहत होता है, वहां साधु को आहार लेना कल्प्य होता है। शुष्क पर आर्द्र, आर्द्र पर शुष्क या आर्द्र पर आर्द्र-इन तीन भंगों में आहार ग्रहण करना कल्प्य नहीं होता है। यदि ग्राह्य वस्तु कम भार वाली है, उस पर लघु भार वाली वस्तु रखी है तो उसे अन्यत्र रखकर आहार आदि लेना कल्प्य है।
भारी या बड़े पात्र को उठाने या नीचे रखने में दाता को कष्ट होता है तथा लोक-निंदा भी संभव है कि यह लोलुप साधु दूसरों की सुविधा-असुविधा का भी ध्यान नहीं रखता। यदि दान देते समय अंगभंग या शरीर जल जाए तो दाता या उसके परिजनों के मन में अप्रीति उत्पन्न हो जाती है, जिससे अन्य द्रव्यों का व्यवच्छेद हो जाता है तथा भारी पात्र से वस्तु बाहर निकलने से षट्काय-वध की संभावना रहती है।
___ संहरण आदि प्रत्येक द्वार में भंगों के आधार पर ४३२ भंग इस प्रकार बनते हैं-सचित्त पृथ्वी का सचित्त पृथ्वीकाय पर संहरण, सचित्त पृथ्वीकाय का सचित्त अप्काय पर संहरण आदि स्वकाय-परकाय की अपेक्षा ३६ भंग होते हैं। इनके सचित्त, अचित्त और मिश्र पद से प्रत्येक की तीन चतुर्भंगी होने से १२ भेद होते हैं। १२ का ३६ से गुणा करने पर ४३२ भेद होते हैं।' ६. दायक दोष
जो भिक्षा देने के अयोग्य हों, उनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करना दायक दोष है। पिण्डनियुक्ति में चालीस व्यक्तियों को भिक्षा के अयोग्य माना है। इनमें कुछ दोष व्यक्तियों से सम्बन्धित हैं तथा कुछ सावध क्रियाओं से सम्बद्ध होने के कारण उपचार से दायक के साथ सम्बद्ध हो गए हैं। निषिद्ध दायकों के नाम इस प्रकार हैं-१. बाल, २. अतिवृद्ध, ३ मत्त, ४. यक्षाविष्ट, ५. कम्पमान शरीर, ६. ज्वरग्रस्त, ७. अन्धा, ८. कोढ़ी, ९. खड़ाऊ पहने हुए, १०. हथकड़ी पहने हुए, ११. बेड़ियों से बद्ध, १२. हाथ-पैर कटे हुए, १३. नपुंसक, १४. गर्भवती स्त्री, १५. स्तनपान कराती हुई, १६. भोजन करती हुई, १७. दधि-मन्थन करती हुई, १८. चने पूंजती हुई, १९. गेहूं आदि पीसती हुई, २०. ऊखल में चावल आदि कूटती हुई, २१. शिला
१. मवृ प. १६५।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org