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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१११ कटोरी आदि से भी भिक्षा दी जा सकती है अतः दूसरे विकल्प में भिक्षा कल्प्य है। चतुर्थ विकल्प में दोनों ही वस्तुएं हल्की हैं अत: इस विकल्प में वस्तु ग्राह्य है।
सचित्त पिहित आदि के भी दो-दो भेद होते हैं-अनंतर और परम्पर । सचित्त पृथ्वी के ढ़क्कन से पिहित खाद्य आदि अनन्तर पिहित तथा सचित्त पृथ्वी पर रखे पिठर पर रखा पदार्थ परम्पर पिहित, अंगार से धूपित वस्तु अनंतर पिहित तथा अंगार से भृत शराव आदि से पिहित पिठर परम्पर पिहित है। अंगार-धूपित आदि में अतिरोहित वायु अनंतर पिहित तथा वायु से भरी दृति आदि से पिहित वस्तु परम्पर पिहित है। अतिरोहित फल आदि से पिहित खाद्य अनंतर पिहित तथा फलों से भरी छाबड़ी आदि से पिहित पदार्थ परम्पर पिहित है। त्रसकाय के संदर्भ में कच्छप आदि से पिहित आहार अनंतर पिहित है तथा कच्छप, कीटिका आदि से गर्भित पिठरक आदि से पिहित वस्तु परम्पर पिहित है।' ५. संहृत दोष
जिस पात्र से भिक्षा दी जा रही हो, उसमें यदि कोई अदेय अशन आदि हो तो उसे भूमि पर या अन्यत्र डालकर भिक्षा देना संहत दोष है। जीतकल्पभाष्य में संहरण, उत्किरण और विरेचन को एकार्थक माना है। दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन में उल्लेख मिलता है कि एक बर्तन से दूसरे बर्तन में निकालकर, उसे सचित्त वस्तु पर रखकर, सचित्त जल को हिलाकर, उसमें अवगाहन कर, आंगन में गिरे जल पर चलकर यदि कोई स्त्री आहार-पानी दे तो मुनि उसका प्रतिषेध करे। मूलाचार में संहत के स्थान पर संव्यवहरण शब्द का प्रयोग हुआ है। उसके अनुसार मुनि को देने हेतु वस्त्र या भाजन को बिना देखे खींचकर आहार देना संव्यवहरण दोष है। अनगारधर्मामृत में इसके स्थान पर साधारण दोष का उल्लेख मिलता है। ऐसा संभव लगता है कि संहृत का प्राकृत रूपान्तरण संहरण या साहरण होता है। उसी आधार पर अनगारधर्मामृत में यह साधारण दोष के रूप में लिखा गया है।
जिस प्रकार निक्षिप्त और पिहित दोष में सचित्त, अचित्त और मिश्र की तीन चतुर्भगियां होती हैं, वैसे ही इसकी भी चतुर्भंगियां हैं। केवल द्वितीय और तृतीय चतुर्भंगी के तीसरे भंग की मार्गणा-विधि में अंतर है। ग्रंथकार ने शुष्क और आर्द्र संहरण तथा संहियमाण के आधार पर चार भंगों की कल्पना की है
१. शुष्क पर शुष्क। ३. आर्द्र पर शुष्क। २. शुष्क पर आर्द्र। ४. आर्द्र पर आर्द्र।
१. पिनि २५८, २५९। २. (क) पंव७६४ मत्तगगयंअजोग्गं, पढवाइसछोढदेइ साहरियं।
(ख) पिनि २६२। ३. जीभा १५५७ : साहरणं उक्किरणं, विरेयणं चेव एगदें। ४. दश ५/१/३०, ३१ ।
५. मूला ४६७;
संववहरणं किच्चा, पदादुमिदिचेल-भायणादीणं।
असमिक्खय जं देयं, संववहरणो हवदि दोसो॥ ६. अनध ५/३३। ७. पिनि २६१।
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