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पिंडनियुक्ति अतिथि-भक्तों के सम्मुख मुनि कहता है कि प्रायः लोग उपकारियों, परिचितों एवं आश्रितों को दान देते हैं लेकिन जो अतिथियों का सत्कार करते हैं, उन्हें दान देते हैं, उनका दान श्रेष्ठ होता है।
श्वान-भक्तों के सम्मुख वनीपकत्व करते हुए मुनि इस प्रकार कहता है कि इस संसार में तुम अकेले दान देना जानते हो। ये श्वान कैलाश पर्वत के देव विशेष हैं, पृथ्वी पर ये यक्ष रूप में विचरण कर रहे हैं। इनकी पूजा हितकर तथा तिरस्कार अहितकर होता है। गाय, बैल आदि को तृण आदि आहार सुलभ हो जाता है लेकिन इन कुत्तों को आहार-प्राप्ति सुलभ नहीं होती अत: इनको दान देना श्रेष्ठ है। श्वान आदि के ग्रहण से काक आदि का भी ग्रहण हो जाता है।'
इसके दोष बताते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि पात्र या अपात्र को दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं होता, ऐसा कथन दोष युक्त है क्योंकि इससे सुपात्र और कुपात्र को एक समान निरूपित कर दिया गया है। अपात्र दान की प्रशंसा करना अत्यधिक दोषयुक्त है। इससे मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है, आधाकर्मी दोष की संभावना रहती है, आहार-लोलुपता से साधु की उनके गच्छ में समाविष्ट होने की संभावना रहती है तथा लोगों में यह अवर्णवाद फैलता है कि ये साधु चाटुकारी हैं, आहार-प्राप्ति के लिए चाटुकारिता करते हैं। यदि दान-दाता द्वेषी है और शाक्य आदि का भक्त नहीं है तो वह तिरस्कारपूर्वक यह कह सकता है कि यहां दुबारा मत आना। वनीपकपिण्ड ग्रहण करने से दैन्य प्रकट होता है।' ६. चिकित्सा दोष
वैद्य की भांति चिकित्सा बताकर या उपदेश देकर भिक्षा लेना चिकित्सा दोष है। मूलाचार में आठ प्रकार की चिकित्सा का उपदेश देकर भिक्षा प्राप्त करने को चिकित्सा दोष कहा गया है। अनगारधर्मामृत में इसके लिए वैद्यक दोष का उल्लेख मिलता है। उत्तराध्ययन के परीषह अध्ययन में उल्लेख मिलता है कि साधु चिकित्सा को बहुमान न दे। उसका श्रामण्य तभी सुरक्षित रह सकता है, जब वह न चिकित्सा करवाए और न दूसरों की चिकित्सा करे। चिकित्सापिण्ड का उपभोग करने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है ।११ गृहस्थ यदि साधु को अपने रोग के बारे में बताता है तो साधु उसकी तीन प्रकार से चिकित्सा कर सकता है
१. पिनि २१०/३। २. जीभा १३७६ : तुममेगो जाणसी दाउं। ३. पिनि २१०/४, ५, जीभा १३७७-८०। ४. पिनि २१२। ५. पिनि २१३, जीभा १३८१ । ६. पिनि २१०, जीभा १३६९ । ७. मूलाटी पृ. ३५४ ; दीनत्वादिदोषदर्शनात्। ८. आठ चिकित्सा के नाम इस प्रकार हैं-१. कौमार
चिकित्सा २. तनु चिकित्सा ३. रसायन चिकित्सा ४. विष चिकित्सा ५. भूत चिकित्सा ६. क्षारतंत्र चिकित्सा ७. शालाकिक चिकित्सा (शलाका द्वारा आंख आदि खोलना) ८. शल्य चिकित्सा (मूला तु ४५२,स्था ८/२६)। ९. अनध ५/२५। १०. उ २/३३। ११. नि १३/६६।
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