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पिंडनियुक्ति जाति-आजीवना है। ब्राह्मण-पुत्र को सही रूप से होम आदि क्रियाएं करते देखकर मुनि यह जान लेता है कि यह गुरुकुल में रहा हुआ ब्राह्मण है अथवा मुनि उसके पिता से कहता है कि तुम्हारे पुत्र ने होम आदि क्रियाएं सम्यक् की हैं या असम्यक्, यह सुनकर पिता जान लेता है कि अवश्य ही यह मुनि ब्राह्मण कुल से सम्बन्धित है अन्यथा इनको इन क्रियाओं का ज्ञान कैसे होता? यह सूचा द्वारा जाति से उपजीवना है। मुनि स्वयं स्पष्ट रूप से अपनी जाति बताए, यह असूचा द्वारा जाति उपजीवना है। इसी प्रकार कुल, गण, कर्म और शिल्प आदि के बारे में जानना चाहिए।
जाति आदि से आहार प्राप्त करने के उपक्रम में यदि गृहस्थ भद्र हो तो वह साधु के लिए आधाकर्म आहार निष्पन्न कर सकता है, यदि प्रान्त हो तो वह साधु को अपमानित करके घर से बाहर निकाल सकता है। कुल-आजीवना
कुल पितृपक्ष से सम्बन्धित होता है। अपना या दूसरे का कुल बताकर आजीविका चलाना कुल आजीवना है। कुल-आजीवना को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि उग्रकुल में प्रविष्ट मुनि गृहस्थ के पुत्र को आरक्षक कर्म में नियुक्त देखकर पिता से कहता है कि लगता है तुम्हारा पुत्र पदाति सेना के नियोजन में कुशल है। यह सुनकर वह जान लेता है कि यह साधु उग्र कुल में उत्पन्न है। जब मुनि स्पष्ट रूप से अपने कुल को प्रकट करता है कि मैं उग्र या भोग कुल का हूं तो यह असूचा के द्वारा कुल को प्रकट करना है। कर्म और शिल्प-आजीवना
कृषि तथा यंत्र-उत्पीलन आदि को कर्म तथा सिलाई-बुनाई आदि को शिल्प कहा जाता है। इनकी दूसरी परिभाषा यह भी की जाती है कि जो बिना आचार्य के स्वयं अपने कौशल से सीखा जाता है, वह कर्म तथा आचार्य द्वारा उपदिष्ट कौशल शिल्प कहलाता है।
कर्म और शिल्प विषयक एकत्रित अनेक वस्तुओं को देखकर यह सम्यक् है अथवा असम्यक्, ऐसा अपने कौशल से जताना अथवा स्पष्ट कहना कर्म और शिल्प विषयक उपजीवना है।० गण-आजीवना
गण का अर्थ है-मल्ल-समूह। गण-कौशल को बताकर आजीविका प्राप्त करना गण-आजीवना १. पिनि २०७/१, २, जीभा १३५३-५५।
६.पिनि २०७; कम्म किसिमादी। २.पिनि २०७/३, ४, मवृ प. १२९ ।
७. जीभा १३५८ ; जंतुप्पीलणमादि तु कम्म। ३. जीभा १३५६।
८. पिनि २०७, मवृ प. १२९,जीभा १३५८ ; तुण्णादियं सिप्पं। ४. (क) जीभा १३५७ ; उग्गाईयं तु कुलं, पितुवंसादि। ९. जीभा १३५९ ; जं कीरती सयं तू, तं कम्मे, अहवा (ख) पिंप्र ६४ ; उग्गाइपिउभवं च कुलं।
जं सिक्खिज्जइ, आयरितुवदेसतो तयं सिप्पं । ५. मवृ प. १२९ ।
१०. पिनि २०७/४, जीभा १३६०।
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