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पिंडनियुक्ति ८. मानपिण्ड
दूसरों के द्वारा उत्साहित किए जाने पर अथवा लब्धि और प्रशंसात्मक शब्दों को सुनकर गर्व से भिक्षा की एषणा करना अथवा दूसरे के द्वारा अपमानित होने पर पिण्ड की एषणा करना मानपिण्ड दोष है।' मानपिण्ड दोष को स्पष्ट करने के लिए ग्रंथकार ने सेवई लाने वाले क्षपक की कथा का विस्तार से वर्णन किया है।
___ मानपिण्ड दोष युक्त भिक्षा ग्रहण करने से कभी-कभी पति-पत्नी के बीच द्वेष एवं दूरी हो सकती है क्योंकि पत्नी की इच्छा नहीं होने पर इसे मानहानि का हेतु बनाकर मुनि यदि पति से वह भिक्षा ग्रहण कर लेता है तो इस अपमान से कभी दोनों में से एक आत्मघात भी कर सकता है। मानपिण्ड ग्रहण करने से प्रवचन की अवहेलना भी होती है। ९. मायापिण्ड
मायापूर्वक भिक्षा ग्रहण करना मायापिण्ड दोष है। नियुक्तिकार ने मायापिण्ड का स्वरूप स्पष्ट न करके केवल आषाढ़भूति के कथानक का ही संकेत दिया है। १०. लोभपिण्ड
आसक्तिपूर्वक किसी वस्तु विशेष की येन केन प्रकारेण गवेषणा करना अथवा गरिष्ठ या उत्तम पदार्थ को अति मात्रा में ग्रहण करना लोभपिण्ड दोष है। ग्रंथकार ने लोभपिण्ड में केशरिया मोदक प्राप्त करने वाले साधु की कथा का संकेत दिया है।
क्रोध, मान आदि चारों पिण्ड कर्मबंध के कारण तो हैं ही, प्रवचन-लाघव के हेतु भी हैं। ११. संस्तव दोष
भिक्षा ग्रहण करने से पहले या ग्रहण करने के बाद दाता की प्रशंसा करना या सम्बन्ध स्थापित करना संस्तव दोष है। यह दो प्रकार का होता है-१. वचन संस्तव २. सम्बन्धी संस्तव। इन दोनों के भी पूर्व और पश्चात् दो-दो भेद होते हैं। निशीथ भाष्य में संस्तव के और भी अनेक भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इन चारों भेदों की व्याख्या इस प्रकार है• पूर्ववचन संस्तव
भिक्षा लेने से पूर्व दाता के सद् असद् गुणों का उत्कीर्तन करना कि तुम्हारी कीर्ति दसों दिशाओं में
१.पिनि २१९। २. विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३७। ३. पिनि २१९/८, दोण्हेगतरपदोसे, आतविवत्ती य उड्डाहो। ४. पिंप्र६९ ; मायाए विविहरूवं, रूवं आहारकारणे कुणइ। ५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३८
६. पिनि २२० । ७. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३९ । ८. पिंप्र ७१ ; थुणणे संबंधे, संथवो दुहा सो य पुव्व पच्छा वा ।
दायारं दाणाओ, पुव्वं पच्छा व जं थुणई ॥ ९. निभा १०२५-४९, चू. पृ. १०८-११३।
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