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पिंड नियुक्ति
पिण्डविशुद्धिप्रकरण के टीकाकार यशोदेवसूरि के अनुसार भिक्षा के ४७ दोषों में मूलकर्म का प्रयोग सबसे अधिक गुरु और सावद्य है।
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भिक्षा से सम्बन्धित मूलकर्म दोष का उल्लेख आगम- साहित्य में कहीं नहीं मिलता है। प्रश्न व्याकरण (२/१२) में मूलकर्म का उल्लेख है पर वहां भिक्षा का प्रसंग नहीं है। इस संदर्भ में यह संभावना की जा सकती है कि महावीर तथा उसके बाद भी कुछ वर्षों तक मूलकर्म का प्रयोग भिक्षा-प्राप्ति के लिए नहीं किया जाता था लेकिन बाद में समय के अन्तराल में किसी साधु ने यह प्रयोग किया होगा इसीलिए पिण्डनिर्युक्तिकार ने इसे उत्पादना दोष के साथ जोड़ दिया। निशीथ में भी उत्पादना के १५ दोषों का उल्लेख है, उसमें मूलकर्म का संकेत नहीं है।
तकल्पभाष्य में मूलकर्म के दो भेद किए हैं- गर्भाधान तथा गर्भ- परिशाटन । इसमें नियुक्तिकार भिन्नयोनिका कन्या तथा दो रानियों के कथानकों का उल्लेख किया है।
कर्म का प्रयोग करने से हिंसा का दोष लगता है। अक्षत योनित्व करने से कामप्रवृत्ति बढ़ती है तथा गर्भपात करने से सम्बन्धित व्यक्ति को भयंकर रोष हो सकता है, इससे प्रवचन की अवमानना होती है । क्षतयोनि करने से साधु को जीवन भर भोगान्तराय लगता है। जीतकल्पभाष्य में भी मूलकर्म से होने वाले दोषारोपण आदि दोषों का उल्लेख किया गया है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में उत्पादन दोषों क्रम एवं नामों में अंतर मिलता है। यहां पिण्डनिर्युक्ति के साथ श्वेताम्बर आगम तथा दिगम्बर परम्परा में प्राप्त दोषों के नामों का चार्ट प्रस्तुत किया जा रहा है
पिण्डनिर्युक्ति १. धात्री २. दूती ३. निमित्त
४. आजीवना
५. वनीपक
६. चिकित्सा ७. क्रोध
८. मान ९. माया १०. लोभ ११. संस्तव
१२. विद्या १३. मंत्र
१४. चूर्ण १५. योग १६. मूलकर्म
निशीथ १३/६१-७५
१. धात्री २. दूती ३. निमित्त
४. आजीविका
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५. वनीपक
६. चिकित्सा
७. क्रोध
८. मान
९. माया
१०. लोभ
११. विद्या
१२. मंत्र
१३. योग
१४. चूर्ण
१५. अन्तर्धानपिंड
१. पिंप्र ७५ ; मूलकम्मं महापावं, टी प. ६९ ।
२. जीभा १४६८; दुविहं तु मूलकम्मं, गब्भादाणे तहेव परिसाडे ।
मूलाचार ४४५ १. धात्री
२. दूत
३. निमित्त
४. आजीव
५. वनीपक
६. चिकित्सा ७. क्रोधी
८. मानी
९. मायी
१०. लोभी
११. पूर्वस्तुि
१२. पश्चात्स्तुति
१३. विद्या
१४. मंत्र
१५. चूर्णयोग १६. मूलकर्म
अनगारधर्मामृत ५ / १९
१. धात्री
२. दूत
३. निमित्त
४. वनीपकोक्ति
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५. आजीव
६. क्रोध
७. मान
८. माया
९. लोभ
१०. प्राक्नुति ११. अनुनुति १२. वैद्यक
१३. विद्या
१४. मंत्र
१५. चूर्ण
१६. वश/मूलक
३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४४-४६ । ४. जीभा १४६९ ।
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