________________
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
१०१ १४. चूर्णपिण्ड दोष
अंजन आदि के प्रयोग से अदृश्य होकर भिक्षा प्राप्त करना अथवा चूर्णके द्वारा वशीकृत करके भिक्षा प्राप्त करना चूर्णपिण्ड दोष है। विद्या और मंत्रपिण्ड के प्रयोग में जो दोष हैं, वे ही चूर्णपिण्ड ग्रहण करने में हैं। चूर्णपिण्ड प्रयोग से प्रद्वेष को प्राप्त करके कोई व्यक्ति मुनि का प्राण-घात भी कर सकता है। दिगम्बर परम्परा में चूर्णदोष की व्याख्या भिन्न प्रकार से मिलती है। वहां अदृश्य होने वाले अञ्जन आदि का प्रयोग नहीं, बल्कि आंखों को निर्मल करने वाले चूर्ण तथा शरीर को विभूषित और दीप्त करने वाले चूर्ण की विधि बताकर आहार प्राप्त करना चूर्ण दोष है। निशीथ में उल्लिखित अन्तर्धान पिण्ड को चूर्णपिण्ड के अन्तर्गत रखा जा सकता है। ग्रंथकार ने चूर्णपिण्ड दोष में चाणक्य और क्षुल्लकद्वय की कथा का संकेत किया है। चूर्णपिण्ड के प्रयोग की अवगति होने पर साधुत्व एवं संघ की अवमानना होती है। १५. योगपिण्ड दोष
__पादलेप अथवा सुगंधित पदार्थ का प्रयोग करके, पानी पर चलकर अथवा आकाश-गमन करके भिक्षा प्राप्त करना योगपिण्ड दोष है। योगपिण्ड के अन्तर्गत आर्य समित एवं कुलपति का दृष्टान्त है। आर्य समित ने लोगों को प्रभावित करने या भिक्षा के लिए योग का प्रयोग नहीं किया, बल्कि संघ की प्रभावना के लिए योग का प्रयोग किया।
चूर्ण और योग-इन दोनों में द्रव्य की अपेक्षा से विशेष भेद नहीं है। सामान्य द्रव्य से निष्पन्न शुष्क या आर्द्र क्षोद चूर्ण कहलाता है तथा सुगंधित द्रव्य से निष्पन्न शुष्क या लेप रूप पिष्टी योग कहलाता है। १६. मूलकर्म दोष
प्रयोग द्वारा किसी के कौमार्य को क्षत करना अथवा किसी की योनि का निवेशन करना अर्थात् उसे अक्षत करके भोग भोगने के योग्य बना देना मूलकर्म है। पिण्डविशुद्धिप्रकरण में सौभाग्य के लिए स्नान, रक्षाबंधन, गर्भाधान, गर्भपरिशाटन, विवाह कराना तथा धूप आदि के प्रयोग को मूलकर्म के अन्तर्गत माना है। मूलाचार के अनुसार जो वश में नहीं हैं, उनको वश में करना तथा वियुक्तों का संयोग कराना मूलकर्म है, उसके द्वारा आहार की प्राप्ति मूलकर्म दोष है। अनगारधर्मामृत में इसके स्थान पर वश दोष का भी उल्लेख है। मूलकर्म व्यापक संदर्भ को प्रकट करता है। वशीकरण मूलकर्म का ही एक प्रयोग है। १. पिंप्र७३।
५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४३। २. पिंप्रटी प. ४० ; चूर्णः औषध द्रव्यसंकरक्षोदः-अनेक ६. पिनि २३१/१, मवृ प. १४३। औषधियों के मिश्रण को चूर्ण कहते हैं।
७. (क) पिनि २३१/५। ३. जीभा १४५६
(ख) पंव ७६०; गब्भपरिसाडणाइ व, पिंडत्थं कुणइ एवं वसिकरणादिसु, चुण्णेसु वसीकरेत्तु जो तु परं।
मूलकम्मं तु। उप्याएती पिंडं, सो होती चुण्णपिंडो तु॥ ८. पिंप्र ७५ : मंगलमूलीण्हवणाइ, गब्भवीवाहकरणघायाई। ४. मूला ४६०
___ भववणमूलं कम्म, ति मूलकम्मं महापावं। नेत्तस्संजणचुण्णं, भूसणचुण्णं च गत्तसोभयरं । ९. मूला ४६१। चुण्णं तेणुप्पादो, चुण्णयदोसो हवदि एसो॥ १०. अनध ५/१९।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org