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पिंडनियुक्ति
सप्तविध अग्नि में गेंहू आदि को अग्नि के ऊपर सेकना या डालना अनंतर निक्षिप्त है तथा अग्नि के ऊपर पात्र में वस्तु रखने को परम्पर निक्षिप्त कहते हैं। परम्पर निक्षिप्त में ग्रंथकार ने चार विकल्प प्रस्तुत किए हैं• पाश्र्वावलिप्त-अग्नि पर चढ़ा विशाल मुख वाला पात्र चारों ओर से मिट्टी से अवलिप्त होना चाहिए। यदि किसी कारण से रस या पानी की बूंद गिर जाए तो उसे मिट्टी सोख ले, अग्निकाय की विराधना न हो। • अनत्युष्ण-इक्षुरस अति उष्ण नहीं होना चाहिए। अत्यधिक उष्ण रस लेने से आत्म-विराधना और पर-विराधना दोनों संभव हैं। • अपरिशाटि-अपरिशाटि अर्थात् देते समय रस नीचे नहीं गिरना चाहिए। रस गिरने से अग्निकाय की विराधना संभव रहती है। • अघटुंत-अर्थात् कटाह से दीयमान, उदक या रस कड़ाई के उपरितन भाग (कर्ण) से घट्टित नहीं होना चाहिए। घट्टित होने पर अग्नि में बूंद गिरने तथा पात्र का ऊपरी भाग खंडित होने की संभावना रहती है अतः वह कल्पनीय नहीं होता।
ग्रंथकार ने पार्वावलिप्त, अनत्युष्ण, अपरिशाटि और अघट्टित कर्ण-इन चार पदों से गणित के फार्मूले द्वारा १६ भंगों की कल्पना की है। इनमें प्रथम भंग शुद्ध तथा शेष १५ भंग अशुद्ध हैं । सोलह भंगों की रचना इस प्रकार होगी
१. प्रथम पंक्ति में एकान्तरित लघु गुरु करते हुए सोलह भंग। २. द्वितीय पंक्ति में दो लघु दो गुरु करते हुए सोलह भंग। ३. तृतीय पंक्ति में पहले चार लघु फिर चार गुरु, पुनः चार लघु और चार गुरु।
४. चतुर्थ पंक्ति में पहले आठ लघु फिर आठ गुरु। इनकी स्थापना इस प्रकार होगी
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।। । । । । ।। ssss ssss चारों पंक्तियों में नीचे से ऊपर चलते हुए बायीं ओर से एक एक भंग को उठाने से सोलह भंगों की रचना इस प्रकार होगी
१.पिनि २५३/२१
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