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पिंडनियुक्ति
अचित्त म्रक्षित
अचित्त म्रक्षित में भी हस्त और पात्र से सम्बन्धित चतुर्भगी होती है। चतुर्भंगी में आहार ग्रहण की भजना है। इनमें अगर्हित प्रक्षित से युक्त हाथ और पात्र से भिक्षा ग्राह्य है लेकिन गर्हित म्रक्षित का प्रतिषेध है। अगर्हित गोरसद्रव मधु , घृत, तैल, गुड़ आदि से खरंटित हाथ या पात्र यदि जीवों से संसक्त हैं तो उस स्थिति में भिक्षा वर्ण्य है क्योंकि इससे मक्षिका, पिपीलिका आदि की हिंसा की संभावना रहती है। सामान्यतः स्थविरकल्पी मुनि विधिपूर्वक घृत, गुड़ आदि से खरंटित हाथ से भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं लेकिन जिनकल्पिक वैसे हाथों से भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते। लोक में गर्हित मांस, वसा, शोणित और मदिरा आदि से खरंटित हाथ या पात्र से आहार लेना वर्जित है तथा उभयलोक में गर्हित मूत्र और मल से मेक्षित भी साधु के लिए अग्राह्य है। ३. निक्षिप्त दोष
सचित्त पृथ्वी आदि पर रखी हुई भिक्षा ग्रहण करना निक्षिप्त दोष है। दशवैकालिक में स्पष्ट उल्लेख है कि अशन, पान, खादिम और स्वादिम आदि खाद्य यदि पानी, उत्तिंग या पनक आदि पर रखे हुए हों, अग्नि पर निक्षिप्त हों तो वह भक्तपान साधु के लिए अकल्प्य है। निक्षिप्त दोष दो प्रकार का होता हैसचित्त और अचित्त।
सचित्त निक्षिप्त के दो भेद हैं-अनन्तर और परम्पर। पृथ्वी, अप् आदि षड्जीवनिकायों का आपस में छह प्रकार से निक्षेप संभव है
१. पृथ्वीकाय का पृथ्वीकाय पर। २. पृथ्वीकाय का अप्काय पर। ३. पृथ्वीकाय का तेजस्काय पर। ४. पृथ्वीकाय का वायुकाय पर। ५. पृथ्वीकाय का वनस्पतिकाय पर। ६. पृथ्वीकाय का त्रसकाय पर।
इसी प्रकार अप्काय आदि के भी ६-६ भेद होते हैं। इनमें एक-एक विकल्प स्वस्थान तथा शेष पांच परस्थान होते हैं। अग्निकाय का सप्तविध निक्षेप इस प्रकार है१. विध्यात-जो अग्नि पहले दिखाई नहीं देती लेकिन बाद में ईंधन डालने पर स्पष्ट दिखाई देती है, वह
विध्यात कहलाती है। १. पिनि २४५, २४५/१।
५. पिनि २४९। २.पिनि २४५/२।
६. ग्रंथकार ने अग्नि पर निक्षिप्त के अनेक भंगों की विस्तार ३. मूला ४६५।
से व्याख्या की है, देखें पिनि २५२-२५२/२, मवृ प. ४. दश ५/१/५९,६१, ६२।
१५२, १५३।
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