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पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण २. अचित्त प्रक्षित। सचित्त प्रक्षित के तीन भेद हैं-१. पृथ्वीकायप्रक्षित २. अप्कायम्रक्षित ३. वनस्पतिकायम्रक्षित। सचित्त पृथ्वीकाय प्रक्षित-शुष्क या आर्द्र सचित्त पृथ्वीकाय से लिप्त हाथ या पात्र से भिक्षा लेना। अप्काय प्रक्षित-शुष्क या आर्द्र सचित्त रसों से युक्त हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण करना अप्काय म्रक्षित
है। सचित्त अप्काय प्रक्षित के चार भेद हैं - १. पुरःकर्म-साधु को भिक्षा देने के लिए दान देने से पूर्व सचित्त जल से हाथ धोना। २. पश्चात्कर्म-भिक्षा देने के पश्चात् सचित्त जल से हाथ धोना।' ३. सस्निग्ध-सचित्त जल से ईषत् आई हाथों से भिक्षा ग्रहण करना।
४. उदका-जिससे पानी टपक रहा हो, ऐसे सचित्त जल से युक्त हाथ से भिक्षा ग्रहण करना। वनस्पतिकाय म्रक्षित-वनस्पतिकाय के रस अथवा प्रत्येक और साधारण वनस्पति के श्लक्ष्ण खंडों से
लिप्त हाथ से भिक्षा ग्रहण करना। शेष तीन काय-तेजस्, वायु और त्रस के सचित्त-अचित्त रूप म्रक्षित नहीं होता अतः उसका यहां ग्रहण नहीं किया गया है।
संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य तथा इनके प्रतिपक्षी-असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य-इनके परस्पर संयोग से आठ भंग बनते हैं
• संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। • संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। • संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। • संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। • असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। • असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। • असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। • असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य ।
इनमें दूसरे, चौथे, छठे और आठवें विकल्प में पश्चात्कर्म की संभावना होने के कारण उन भंगों में भिक्षा लेने का निषेध है तथा विषम संख्या वाले भंगों में भिक्षा ग्रहण की जा सकती है क्योंकि सावशेष होने के कारण हाथ और पात्र संसृष्ट होने पर भी पश्चात्कर्म की संभावना नहीं रहती।
१. पिनि २४३, जीभा १४९१ ।
४. पुरःकर्म और पश्चात्कर्म के स्पष्टीकरण हेतु देखें दश २. जीभा १४९४, पिनि २४३/२।
५/१/३२-३६ एवं उनका टिप्पण। ३. दशजिचू पृ. १७८ ; पुरेकम्मं नाम जं साधूणं दट्टणं हत्थं ५. पिनि २९९ ।
भायणं धोवइ, तं पुरेकम्म भण्णइ।
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