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पिण्डनिर्युक्ति : एक पर्यवेक्षण
मूलाचार में दूतीदोष के स्थान पर दूतदोष का उल्लेख भी मिलता है।
मूलाचार में क्रोधपिण्ड आदि के स्थान पर व्यक्ति का विशेषण करके क्रोधी, मानी, मायी और लोभी का उल्लेख है।
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निशीथ में १५ दोषों के साथ संस्तव दोष का उल्लेख नहीं है लेकिन दूसरे उद्देशक में पुरः एवं पश्चात् संस्तव करने वाले को प्रायश्चित्त का भागी बताया है।' पिण्डनिर्युक्ति में संस्तव दोष के अन्तर्गत ही पूर्वस्तुति तथा पश्चात् स्तुति का समावेश होता है, जबकि मूलाचार और अनगारधर्मामृत में संस्तव दोष को दो अलग-अलग दोष माना है। अनगारधर्मामृत में प्राक्नुति और पश्चात्नुति तथा मूलाचार में पूर्वस्तुति और पश्चात्स्तुति का उल्लेख है । शब्दभेद होने पर भी यहां अर्थसाम्य है।
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अनगारधर्मामृत में चिकित्सा दोष के स्थान पर वैद्यक दोष का उल्लेख भी मिलता है।
दिगम्बर परम्परा में चूर्ण और योग को एक साथ माना है, जबकि पिण्डनिर्युक्ति में ये दोनों अलग-अलग दोष हैं।
निशीथ के तेरहवें उद्देशक में उत्पादना से सम्बन्धित १५ दोषों का उल्लेख एक स्थान पर मिलता है लेकिन वहां छेद सूत्रकार ने इनके लिए उत्पादना के दोषों का उल्लेख नहीं किया है । अन्तर्धान दोष को चूर्णपिण्ड के अन्तर्गत न रखकर स्वतंत्र दोष माना है तथा मूलकर्म दोष का उल्लेख नहीं है। आचार्य भद्रबाहु ने इन दोषों का सेवन करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त का भागी बताया है।
ग्रहणैषणा के दोष
उद्गम और उत्पादन के अतिरिक्त शंका आदि दोषों से रहित आहार ग्रहण करना ग्रहणैषणा है । पंचवस्तु में एषणा शब्द को ग्रहणैषणा के संदर्भ में प्रयुक्त किया है। वहां एषणा, गवेषणा, अन्वेषणा और ग्रहण को एकार्थक माना है।
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इनमें उद्गम के दोष गृहस्थ से, उत्पादन के दोष साधु से सम्बन्धित होते हैं लेकिन एषणा के दश दोष साधु और गृहस्थ दोनों से सम्बन्धित होते हैं। इनमें शंकित तथा भावतः अपरिणत- ये दो दोष साधु से तथा शेष आठ दोष नियमतः गृहस्थ से उत्पन्न होते हैं। एषणा के इन दोषों के लिए मूलाचार और अनगारधर्मामृत के टीकाकार ने अशन दोष का उल्लेख भी किया है। ग्रहणैषणा के दोषों से युक्त भिक्षा लेने से पापबंध, हिंसा तथा लोक में जुगुप्सा होती है । ग्रहणैषणा के दस दोष इस प्रकार हैं- १. शंकित, २. प्रक्षित, ३. निक्षिप्त, ४. पिहित, ५. संहत, ६. दायक, ७. उन्मिश्र, ८. अपरिणत, ९. लिप्त,
१०. छर्दित ।
१. नि २/३७ ।
२. नि १३/६१-७५ ।
३. पिनि २३३ ।
४. पंव ७६१ ; एसण गवेसणऽण्णेसणा य गहणं च होंति एगट्ठा ।
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५. पिनि २३४, २३५ ।
६. (क) मूलाटी पृ. ३६७ ; एते अशनदोषाः दश परिहरणीयाः ।
(ख) अनध ५ / २८
७. पिनि २३७, जीभा १४७६ ।
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